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सेवासदन
 


अच्छादित हो जाती। वह जनवा से में पंण्डित पद्मसिंह की बात सुन-सुनकर अधीर हो रहा था। वह डरता था कि कहीं पिताजी उनकी बातों में न आ जाँय। उसको समझ में न आता कि चाचा साहब को क्या हो गया है? अगर यही बातें किसी दूसरे मनुष्य ने की होती तो वह अवश्य उसकी जबान पकड़ लेता। लेकिन अपने चाचा से वह बहुत दबता था। उसे उनका‌ प्रतिवाद करने की बड़ी प्रबल इच्छा हो रही थी; उसकी तार्किक शक्ति कभी इतनी सतेज न हुई थी, और यदि विवाद तर्क हीं तक रहता तो वह जरुर उनसे उलझ पड़ता। लेकिन मदनसिंह की उद्रता ने उसके प्रतिवाद उत्सुक्ता को सहानुभूति के रूप में परिणत कर दिया।

इधर से निराश होकर सदन का लालसापूर्ण हृदय फिर सुमन की ओर लपका। विषय-वासना का चसका पड़ जान के बाद अब उसकी प्रेमकल्पना निराधार नहीं रह सकती थी। उसका हृदय एक बार प्रेमदीपक से आलोकित होकर अब अन्धकार में नहीं रहना चाहता था। वह पद्मसिंह के साथ ही काशी चला आया।

किन्तु यहाँ आकर वह एक बड़ी दुविधा में पट गया। उसे समय होने लगा कि कही सुमन बाई को ये सब समाचार मालूम न हो गये हो। वह वहाँ स्वयं तो न रही होगी, लोगों ने उसे अवश्य ही त्याग दिया होगा, लेकिन उसे विवाह की सूचना जरूर दी होगी। ऐसा हुआ होगा तो कदाचित्व ह मुझसे सीधे मुँह बात भी न करेगी। सम्भव है वह मेरा तिरस्कार भी करे। लेकिन संध्या होते ही उसने कपड़े बदले, घोड़ा कसवाया और दालमंडी की ओर चला। प्रेम मिलाप की आनन्दपूर्ण कल्पना के सामने वे शंकाए निर्मूल हो गई। वह सोच रहा था कि सुमन मुझसे पहले क्या कहेगी, ओर में उसका उत्तर क्या दूँगा, कही उसे कुछ न मालूम हो और वह जाते ही प्रेम से मेरे गले लिपट जाय और कहे कि तुम बड़े निठुर हो। इस कल्पना ने उसकी प्रेमाग्नि को और भी भड़कया, उसने घोड़े को एट लगाई और एक क्षणमे दालमंण्डी के निकट आ पहुँचा, पर जिस प्रकार एक खिलाड़ी लड़का पाटशाला के द्वारपर आकर भीतर जाते हुए डरता है उसी प्रकार