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सेवासदन
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सदन दालमंण्डी के सामने आकर ठिठक गया; उसकी प्रेमाकांक्षा मन्द हो गई। वह धीरे-धीरे एक ऐसे स्थान पर आया जहाँ से सुमन की अट्टालिका। साफ दिखाई देती थी। यहाँ से कातर नेत्रों से उस मकान के द्वार की ओर देखा। द्वार बन्द या ताला पड़ा हुआ था। सदन के हृदय से एक बोझा-सा उतर गया। उसे कुछ वैसा ही आनन्द हुआ जैसा उस मनुष्य को होता है जो पैसा न रहने पर भी लड़के की जिद से विवश होकर खिलौने की दूकान पर जाता है और उसे बन्द पाता है।

लेकिन घर पहुँचकर सदन अपनी उदासीनता पर बहुत पछताया। वियोग को पीड़ा के साथ साथ उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। उसे किसी प्रकार का धैर्य न होता था। रात को जब सब लोग खा-पीकर सोये तो वह चुपके से उठा और दालमण्डी की ओर चला। जाड़े की रात थी, ठण्डी हवा चल रही थी, चन्द्रमा कुहरे की आड़ से झांकता था और किसी घबराये हुए मनुष्य के समान सवेग दौड़ता चला जाता था। सदन दालमण्डी तक बड़ी तेजी से आया, पर यहाँ आकर फिर उसके पैर बँध गये। हाथ-पैर की तरह उत्साह भी ठण्डा पड़ गया। उसे मालूम हुआ कि इस समय यहाँ मेरा आना अत्यन्त हास्यास्पद है। सुमन के यहाँ जाऊँ तो वह मुझे क्या समझेगी। उसके नौकर आराम से सो रहे होगें। वहाँ कौन मुझे पूछता है। उसे आश्चर्य होता था कि मैं यहाँ कैसे चला आया। मेरी बुद्धि उस समय कहाँ चली गई। अतएव वह लौट पड़ा।

दूसरे दिन सन्ध्या समय वह फिर चला। मन से निश्चय कर लिया था कि अगर सुमन ने मुझे देख लिया और बुलाया तो जाऊँगा, नहीं तो सीधे अपने राह चला जाऊँगा। उसका मुझे बुलाना ही बतला देगा कि उसका हृदय मेरी तरफ से साफ है। नहीं तो इस घटना के बाद वह मुझे बुलाने ही क्यों लगी। जब और आगे बढ़कर उसने फिर सोचा, क्या वह मुझे बुलाने के लिये झरोखेपर बैठी होगी। उसे क्या मालूम है कि मैं यहाँ आ गया। यह नहीं, मुझे एक बार स्वयं उसके पास चलना चाहिये। सुमन मुझ से, कभी नाराज नहीं हो सकती और जो नाराज भी हो तो क्या