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सेवासदन
२०५
 


तेगअली बोले, जनाब, मुलसमान मेम्बरों की तरफ से तो आपको पूरी मदद मिलेगी।

डॉक्टर—हों, लेकिन हिन्दू मेम्बरों में तो मतभेद है।

पद्म-आपकी सहायता हो जाय तो सफलता में कोई संदेह न रहें।

डाक्टर--मुझे इस प्रस्ताव से पूरी सहानुभूति है, लेकिन आप जानते है, मैं गवर्नमेन्ट का नामजद किया हुआ मेम्बर हूँ। जबतक यह न मालूम हो जाय कि गवर्नमेन्ट इस विषय को पसन्द करती है या नहीं, तबतक मैं ऐसे सामाजिक प्रश्न पर कोई राय नही दे सकता।

विठ्ठलदासने तीव्र स्वर से कहा, जब मेम्बर होने से आपके विचार स्वातन्त्र्य मे बाधा पड़ती तो आपको इस्तीफा दे देना चाहिये।

तीनों आदमियोने विट्ठलदास को उपेक्षा की दृष्टि से देखा। उनका यह कथन असंगत था। तेगअली ने व्यंग, भाव से कहा, इस्तीफा दे दे तो यह सम्मान कैसे हो? लाटसाहब के बराबर कुर्सीपर कैसे बैठे? आनरेबल कैंसे कहलावे? बडे-बड़े अंगरेजो से हाथ मिलाने का सौभाग्य से प्राप्त हो? सरकारी डिनर में बढ़-बढ़कर हाथ मारने का गौरव कैसे मिले? नैनीताल की सैर कैसे करे? अपनी वक्तृता का चमत्कार कैसे दिखावे? यह भी तो सोचिये।

विट्ठलदास बहुत लज्जित हुए। पद्मसिंह पछताये कि विट्ठलदास के साथ नाहक आये।

डॉक्टर साहब गम्भीर भाव से बोले, साधारण लोग समझते है कि इस लालच से लोग मेम्बरी के लिए दौड़ते है। वह यह नहीं समझते कि यह कितनी जिम्मेदारी का काम है। गरीब मेम्बरों को अपना कितना समय, कितना विचार, कितना धन, कितना परिश्रम इसके लिए अर्पण करना पड़ता है। इसके बदले उसे इस सन्तोष के सिवाय और क्या मिलता है कि मैं देश और जाति की सेवा कर रहा हूँ। ऐसा न हो तो कोई मेम्बरी की परवा न करे।

तेगअली—जी हाँ, इसमे क्या शक है, जनाब ठीक फरमाते है, जिसके