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सेवासदन
 

कृष्ण--सुनो, यह रोने धोने का समय नही है। मै कानून के पन्जे में फँसा हूँ और किसी तरह नही बच सकता। धैर्य से काम लो, परमात्मा की इच्छा होगी तो फिर भेट होगी।

यह कहकर वह बाहर की ओर चले कि दोनो लड़कियाँ आकर उनके पैरो से चिमट गई। गंगाजली ने दोनो हाथो से उनकी कमर पकड़ ली और तीनो चिल्लाकर रोने लगी।

कृष्णचन्द्र भी कातर हो गए। उन्होने सोचा, इन अबलाओ की क्या गति होगी? परमात्मन्! तुम दीनो के रक्षक हो, इनकी भी रक्षा करना।

एक क्षण में वह अपने को छुडा़कर बाहर चले गये। गंगाजली ने उन्हें पकड़ने को हाथ फैलाये, पर उसके दोनो हाथ फैले ही रह गये, जैसे गोली खाकर गिरनेवाली किसी चिङिया के दोनो पंख खुले रह जाते है।


कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे। यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई। कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली।

इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियोग चलाया गया। महन्त रामदास भी गिरफ्तार हुए।

दोनों मुकदमे महीने भरतक चलते रहे। हाकिम ने उन्हें दीरे सुपुर्द कर दिया।

वहाँ भी एक महीना लगा। अन्त मे कृष्णचन्द्र को पाँच वर्ष की कैद हुई। महन्तजी सात वर्ष के लिए गये और दोनों चेलो को कालेपानी का दण्ड मिला।

गंगाजली के एक सगे भाई पण्डित उमानाथ थे। कृष्णचन्द्र की उनसे जरा भी न बनती थी। वह उन्हें धूर्त और पाखंडी कहा करते, उनके