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सेवासदन
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और मुख मण्डल में प्रतिभा की ज्योति स्फुटित हो रही थी। महफिल में सन्नाटा छा गया। सब लोग आंखें फाड़-फाड़कर महात्मा की ओर ताकने लगे। यह साधु कौन है? कहाँ से आ गया।

साधु ने त्रिशूल ऊँचा किया और तिरस्कारपूर्ण स्वर से बोला हाँ शोक! यहाँ कोई नाच नहीं, कोई वेश्या नहीं, सब बाबा लोग उदास बैठे है। श्याम-कल्याण की धुन कैसी मनोहर है, पर कोई नहीं सुनता, किसी के कान नहीं, सब लोग वेश्या का नाच देखना चाहते है। या उन्हें नाच दिखाओ या अपने सर तुड़ाओ। चलो, मैं नाच दिखाऊँ। देवताओं का नाच देखना‌ चाहते हो? देखो सामने वृक्ष की पत्तियों पर निर्मल चन्द्र की किरणे कैसी नाच रही है। देखो तालाब में कमल के फूलपर पानी की बूंदे कैसी नाच रही है। जंगल में जाकर देखो मोर पंख फैलाये कैसा नाच रहा है। क्यों यह देवताओं का नाच पसन्द नहीं है? अच्छा चलो पिशाचों का नाच दिखाऊँ। तुम्हारा पड़ोसी दरिद्र किसान जमीदार के जूते खाकर कैसा नाच रहा है? तुम्हारे भाइयों के अनाथ बालक क्षुधा से बावले होकर कैसे नाच रहे है? अपने घर में देखो, तुम्हारी विधवा भावज की आंखों में शोक और वेदना के आंसू कैसे नाच रहे है? क्या यह नाचे देखना पसन्द नहीं? तो अपने मन में देखो, कपट और छल कैसा नाच रहा है? सारा संसार नृत्यशाला है उसमे लोग अपना-अपना नाच नाच रहे हैं। क्या यह देखने के लिये तुम्हारी आंखें नहीं है? आओ, मैं तुम्हें शंकर का तांडव नृत्य दिखाऊँ। किन्तु तुम वह नृत्य देखने योग्य नहीं हो। तुम्हारी काम तृष्णा को इस नाच का क्या आनन्द मिलेगा? हां! अज्ञानी मूर्तियों। हा। विषय भोग के सेवकों! तुम्हें नाच का नाम लेते लाज नहीं आती। अपना कल्याण चाहते हो तो इस रीति को मिटाओ। इस कुवासना को तजो, वेश्या-प्रेम का त्याग करो।

सब लोग मूर्तिवत् बैठे महात्मा की उन्मत्त वाणी सुन रहे थे कि इतने में वह अदृश्य हो गये और सामने वाले आम के वृक्षों की आड़ से उनके मधुर गान की ध्वनि सुनाई देने लगी। धीरे-धीरे वह भी अन्धकार में विलीन हो गयी। जैसे रात्रि को चिन्तारूपी नाव निद्रासागर में विलीन हो जाती है।