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सेवासदन
 


स्त्रियाँ भी मुस्करा मुस्कराकर उनपर नयनों की कटार चला रही थी। जान्हवी उदास थी, वह मन में सोच रही थी कि यह वर मेरी चन्द्रा को मिलता तो अच्छा होता। सुभागी यह जानने के लिये उत्सुक थी कि समधी कौन है। कृष्णचन्द्र सदन के चरणों की पूजा कर रहे थे और मन में शंका कर रहे थे कि यह कौनसा उल्टा रिवाज है। मदनसिंह ध्यान से देख रहे थे कि थाल में कितने रुपये है।

बारात जनवा से को चली। रसद का सामान बँटने लगा। चारों ओर कोलाहल होने लगा। कोई कहता था, मुझे घी कम मिला, कोई गोहार लगाता था कि मुझे उपले नहीं दिये गये। लाला बैजनाथ शराब के लिये जिद्द कर रहे थे।

सामान बंट चुका तो लोगोने उपले जलाये और हाँडियाँ चढ़ाई। कुएँ से गैस का प्रकाश पीला पड़ गया।

सदन मसनद लगाकर बैठा। महफिल सज गई। काशी के संगीत समाज ने श्यामकल्याणकी धुन छेड़ी।

सहस्त्रों मनुष्य शामियाने के चारो ओर खड़े थे। कुछ लोग मिर्जई पहने, पगड़ी बाँधे फर्शपर बैठे थे, लोग एक दूसरे से पूछते थे कि डेरे कहाँ है। कोई इस छोलदारी मे झाँकता था, कोई उस छोलदारी में और कुतूहल से कहता था, कैसी बारात है कि एक डेरा भी नही, कहाँ के कंगले है। यह बड़ासा शामियाना काहे को खड़ा कर रक्खा है? मदनसिंह ये बाते सुन-सुनकर मनमें पद्मसिंहपर कुड़बुड़ा रहे थे और पद्मसिंह लज्जा और भय के मारे उनके सामने न आ सकते थे।

इतने में लोगो ने शामियाने पर पत्थर फेंकना शुरु किया। लाला बैजनाथ उठकर छोलदारी में भागे। कुछ लोग उपद्रवकारियों को गालियाँ देने लगे। एक हलचलसी मच गयी। कोई इधर भागता, कोई उधर, कोई गाली बकता था, कोई मारपीट करने पर उतारू था। अकस्मात् एक दीर्घकाय पुरुष, सिर मुड़ाये, भस्म रमाये हाथ में एक त्रिशूल लिये आकर महफिल में खडा हो गया। उसके लाल नेत्र दीपक के समान जल रहे थे