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सेवासदन
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सैयद शफकत अली बोले, हाजी साहब, आपने हम लोगों को जमाना-साज और बेउसूल समझने में मतानत से काम नहीं लिया। हमारा उसूल जो तब था वह अब भी है और वही हमेशा रहेगा और वह है इसलामी वकार को कायम करना और हरएक जायज तरीके से बिरादरने मिल्लत के बेहबूदकी कोशिश करना। अगर हमारे फायदे में बिरादरा ने वतन का नुकसान हो तो हमको इसकी परवाह नहीं। मगर जिस तजबीज से उनके साथ हमको भी फायदा पहुँचता है और उनसे किसी तरह कम नही, उसकी मुखालिफत करना हमारे इमकान से बाहर है। हम मुखालिफत के लिये मुखालिफत नहीं कर सकते।

रात अधिक जा चुकी थी। सभा समाप्त हो गई। इस वार्तालाप का कोई विशेष फल न निकला। लोग मन से जो पक्ष स्थिर करके घर से आये थे उसी पक्षपर डटे रहे। हाजी हाशिम को अपनी विजयका जो पूर्ण विश्वास था उसम सन्देह पड़ गया।

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इस प्रस्ताव के विरोध में हिन्दू मेम्बरों को जब मुसलमानो के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हे मुसलमानो से जो आश थी वह भंग हो गई। कुल दस हिन्दू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डाक्टर श्यामाचरण वाइस चेयरमैन। लाला चिम्मनलाल और दीनानाथ तिवारी व्यापारियों के नेता थे। पद्मसिंह और रुस्तमभाई वकील थे। रमेशदत्त कालेजके अध्यापक, लाला भगतराम ठेकेदार, प्रभाकरराव हिन्दी पत्र ‘जगत' के सपादक और कूंवर अनिरुद्ध बहादुर सिंह जिले के सबसे बड़े जमीदार थे। चौक की दूकानों मे अधिकांश बलभद्रदास और चिम्मनलाल की थी। चावल मंडी में दीनानाथ के कितने ही मकान थे, यह तीनों महाशय इस प्रस्ताव के विपक्षी थे। लाला भगतरामका काम चिम्मनलालकी आर्थिक सहायता से चलता था। इसलिये उनकी सम्मति भी उन्हींकी ओर थी। प्रभाकरराव, रमेशदत्त, रुस्तमभाई और पद्मसिंह इस प्रस्तावके पक्ष में थे।