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सेवासदन
 

कृष्णचन्द्र ने अत्यन्त ग्लानिपूर्वक कहा, मेरी दशा तो तुम देख ही रहे। हो। इतना कहते कहते उनकी आँखो से आंसू टपक पड़े।

उमा—आप निश्चिन्त रहिये मैं सब कुछ कर लूँगा।

कृष्ण—परमात्मा तुम्हें इसका शुभ फल देंगे। भैया, मुझसे जो अविनय हुई है उसका तुम बुरा न मानना। अभी मैं आपे मे नही हूँ, इस कठिन यन्त्रणा ने मुझे पागल कर दिया है। उसने मेरी आत्माको पीस डाला है। मैं आत्माहीन मनुष्य हूँ। उस नरक में पड़कर यदि देवता भी राक्षस हो जायें तो आश्चर्य नहीं। मुझमें इतनी सामर्थ्र्य कहाँ थी कि मैं इतने भारी बोझ को सम्हालता। तुमने मुझे उबार दिया, मेरी नाव पार लगा दी, यह शोभा नहीं देता कि तुम्हारे ऊपर इतने बड़े कार्य का भार रखकर मैं आलसी बना बैठा रहूँ। मुझे भी आज्ञा दो कि कहीं चलकर चार पैसे कमाने का उपाय करूँ। मैं कल बनारस जाऊँगा। यो मेरे पहले के जानपहचान के तो कई आदमी है, पर उनके यहाँ नहीं ठहरना चाहता। सुमन का घर किस मुहल्ले में है।

उमानाथ का मुख पीला पड़ गया। बोले, विवाह तक तो आप यही रहिये। फिर जहाँ इच्छा हो चले जाइयेगा।

कृष्णचन्द्र—नहीं कल मुझे जाने दो, विवाह से एक सप्ताह पहले आ जाऊँगा। दो चार दिन सुमन के यहाँ ठहरकर कोई नौकरी ढूंढ लूँगा। किस मुहल्ले में रहती है?

उमा—मुझे ठीक याद नहीं है, इधर बहुत दिनों से में उधर नहीं गया। शहरवालो का क्या ठिकाना? रोज घर बदला करते है। मालूम नहीं अब किस मुहल्ले मे हो।

रात को भोजन के समय कृष्णचन्द्रने शान्ता से सुमन का पता पूछा। शान्ता उमानाथ के संकेत को न देख सकी, उसने पूरा पता बता दिया।

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शहरकी म्युनिसिपैलिटी में कुल १८ सभासद थे। उनमें ८ मुसलमान