मिट्टी में मिल जाय तो यही सही। मैंने आपका सर्वस्व लूट लिया, खा-पी डाला अब जो सजा चाहे दीजिये, और क्या कहूँ?
उमानाथ यह कहना चाहते थे कि अब तो जो कुछ हो गया वह हो गया; अब मेरा पिण्ड छोड़ो। शान्ता के विवाह का प्रबन्ध को, पर डरे कि इस समय क्रोध में कही यह सचमुच शान्ता को लेकर चले न जायें। इसलिए गम खा जाना ही उचित समझा। निर्बल क्रोध उदार हृदय से करुणा का भाव उत्पन्न कर देता है। किसी भिक्षुक गृह से गाली खाकर सज्जन मनुष्य चुप रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
उमानाथ की सहिष्णुता ने कृष्णचन्द्र को भी शान्त किया, पर दोनों से बातचीत न हो सकी। दोनों अपनी अपनी जगह पर विचार में डूबे-बैठे थे, जैसे दो कुत्ते लड़ने के बाद आमने-सामने बैठे रहते है। उमानाथ सोचते थे। कि बहुत अच्छा हुआ, जो मैं चुप साध गया, नहीं तो संसार मुझी को बदनाम करता। कृष्णचन्द्र सोचते थे कि मैंने बुरा किया, जो ये गड़े मुरदे उखाड़े। अनुचित क्रोध में सोई हुई आत्मा को जगाने का विशेष अनुराग होता है। कृष्णचन्द्र को अपना कर्तव्य दिखाई देने लगा। अनुचित क्रोध ने अकर्मण्यता की निद्रा भंग कर दी। सन्ध्या समय कृष्णचन्द्र ने उमानाथ से पूछा, शान्ता का विवाह तो तुमने ठीक किया है न?
उमानाथ-—हाँ, चुनार में, पण्डित मदनसिंह लड़के से।
कृष्ण—वह तो कोई बड़े आदमी मालूम होते है। कितना दहे ठहरा हैं।
उमानाथ-—एक हजार।
कृष्ण--इतना ही और ऊपर से लगेगा?
उमा-हाँ और क्या?
कृष्णचन्द्र स्तब्ध हो गय। पूछा, रुपयों का प्रबन्ध कैसे होगा?
उमा—ईश्वर किसी तरह पार लगावेगे ही। एक हजार मेरे पास है, केवल एक हजार की और चिन्ता है।