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सेवासदन
 


विचारशील, कैसे दयाशील, कैसे सच्चरित्र मनुष्य ये। यह काया-पलट कैसे हो गयी? शरीर तो वही है पर वह आत्मा कहाँ गई?

इस तरह एक मास बीत गया। उमानाथ मन में झुझलाते कि इन्हीं की लड़को का विवाह होनेवाला है और ये ऐसे निश्चिन्त बैठे है तो मुझी को क्या पड़ी है कि व्यर्थ हैरानी में पड़ूँ। यह तो नहीं होता कि जाकर कही चार पैसे कमाने का उपाय करें, उलटे अपने साथ-साथ मुझे भी खराब कर रहे है।

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एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा अब तुम लोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गाँव पर छाया हुआ था। वे सबके सब डर गये। दूसरे दिन जब कृष्णचन्द्र उनके पास गए तो उन्होंने कहा, महाराज, आप यहां न आया कीजिये। हमें पंण्डित उमानाथ के कोप में न डालिये। कहीं कोई मामला खड़ा कर दें तो हम बिना मारे ही मर जायें।

कृष्णचन्द्र क्रोध में भरे हुए उमानाथ के पास आये और बोले, मालूम होता है, तुम्हें मेरा यहाँ रहना अखरने लगा।

उमानाथ—आपका घर है, आप जब तक चाह रहेंपर में यह चाहता हूँ कि नीच आदमियों के साथ बैठकर आप मेरी और अपनी मर्यादा को भंग न करे।

कृष्णचन्द्र—तो किसके साथ बैठे? यहाँ जितने भले आदमी है, उनमें कौन मेरे साथ बैठना चाहता है? सबके सब मुझे तुच्छ दृष्टि से देखते है। यह मेरे लिए असहय है। तुम इनमें से किसी को बता सकते हो जो पूर्ण धर्म का अवतार हो। सबके सब दगाबाज, दीन किसानों का रक्त चूसने वाले, व्यभिचारी है। मैं अपने को उनसे नीच नहीं समझता। मैं अपने किये का फल भोग आया हूं, वे अभी तक बचे हुए है। मुझमें और उनमें केवल इतना ही फर्क है। वह एक पाप को छिपाने के लिए और भी कितने पाप किया करते