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सेवासदन
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कथाएँ पढ़ा करता था। कभी कभी साधु महात्मा भी आ जाते। उनके पास सत्संग का सुअवसर मिल जाता। उनकी ज्ञान मर्म की बात सुनकर मेरा अज्ञान कुछ कुछ मिटने लगा। मैं आपसे सत्य ही कहता हूँ पुजारी बनते समय मेरे मन में भक्ति का भाव नाममात्र को भी न था। मैंने केवल निरुधमता का सुख और उत्तम भोजन का स्वाद लूटने के लिए पूजा-वृत्ति ग्रहण की थी, पर धर्म कथाओं के पढ़ने और सुनने से मन में भक्ति और प्रेम का उदय हुआ और ज्ञानियों के सत्संग से भक्ति ने वैराग्य का रूप धारण कर लिया। अब गाँव-गाँव घूमता हूँ और अपने से जहाँ तक हो सकता है दूसरों का कल्याण करता हूँ। आप क्या काशी से आ रहे है?

उमानाथ——नहीं, मैं भी एक गाँव से आ रहा हूँ। सुमन की एक छोटी बहन है, उसी के लिए वर खोज रहा हूँ।

गजानन्द——लेकिन अबकी सुयोग बर खोजियेगा।

उमानाथ——सुयोग्य वरों की तो कमी नहीं है, पर उसके लिए मुझमे सामर्थ्य भी तो हो? सुमन के लिए क्या मैंने कुछ कम दौड़-धूप की थी?

गजानन्द——सुयोग्य वर मिलने के लिए आपको कितने रुपयों की आवश्यकता है?

उमानाथ——एक हजार तो दहेज ही माँगते है और सब खर्च अलग रहा।

गजा०——आप विवाह तय कर लीजिये। एक हजार रुपये का प्रबन्ध ईश्वर चाहेगे तो मैं कर दूँगा। यह भेष धारण करके अब मुझे ज्ञात हो रहा है कि मैं प्राणियों का बहुत उपकार कर सकता हूँ।

उमानाथ——दो–चार दिन में आपके ही घर पर आपसे मिलूंगा।

नाव आ गई। दोनों नावपर बैठे। गजानन्द तो मल्लाहों से बात करने लगे, लेकिन उमानाथ चिन्तासागर में डूबे हुए थे। उनका मन कह रहा था कि सुमन का सर्वनाश मेरे ही कारण हुआ।catagory: हिन्दी