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सेवासदन
 


उनमें बहुत से दिव्य गुण है। उनके गुणों को ले लो, दुर्गुणों को छोड़ दो। हमारे अपने रीतिरिवाज हमारी अवस्था के अनुकूल है। उनमे काट-छाँँट करने की जरूरत नहीं।

मदनसिंह ने ये बातें कुछ गर्व से की, मानो कोई विद्वान पुरुष अपने निज के अनुभव प्रकट कर रहा है, पर यथार्थ में ये सुनी सुनाई बातें थी जिनका मर्म वह खुद भी न समझते थे। पद्मसिंह ने इन बातों को बड़ी धीरता के साथ सुना, पर उनका कुछ उत्तर न दिया। उत्तर देने से बात बढ़ जाने का भय था। कोई वाद जब विवाद का रूप धारण कर लेता है तो वह अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है। वाद में नम्रता और विनय प्रवल युक्तियों मे भी अधिक प्रभाव डालती है। अतएव वह बोले,तो में ही चला जाऊँगा, मुन्शी बैजनाथ को क्यों कष्ट दीजियेगा। यह चले जायेंगे तो यहाँ बहुत-सा काम पड़ा रह जायगा। आइये, मुन्शी जी हम दोनों आदमी बाहर चले, मुझे आपसे अभी कुछ बात करनी है।

मदनसिंह—तो यही क्यों नही करते? कहो तो मैं ही हट जाऊँ।

पद्म—जी नहीं कोई ऐसी बात नही है पर ये बातें मै मुन्शी जी से अपनी शंका-समाधान करने के लिए कर रहा हूँँ। हाँँ, भाई साहब बतलाइये अमोला मे दर्शको की संख्या कितनी होगी? कोई एक हजार। अच्छा आपके विचार में कितने इनमें दरिद्र किसान होंगे, कितने जमींदार?

बैजनाथ—ज्यादा किसान ही होगे, लेकिन जमीदार भी दो-तीन सौ से कम न होंगे।

पद्म—अच्छा, आप यह मानते है कि दीन किसान नाच देखकर उतने प्रसन्न न होगे जितने धोती या कम्बल पाकर?

बैजनाथ भी सशस्त्र थे। बोले, नहीं में यह नहीं मानता। अधिकतर ऐसे किसान होते है जो दान लेना कभी स्वीकार न करेगे, वह जलसा देखने आयेंगे और जलसा अच्छा न होगा तो निराश होकर लौट जायेंगे।

पद्मसिंह चकराये। सुकराती प्रश्नों का जो क्रम उन्होंने मन में बाँँध रक्खा था वह बिगड़ गया। समझ गये कि मुन्शी जी सावघान है। अब