आप जब नाच के रिवाजको दूषित समझते है तो उसपर इतना जोर क्यों देते है?
मदनसिंह झुझलाकर बोले, तुम तो ऐसी बाते करते हो मानो इस देश में पैदा ही नहीं हुए, जैसे किसी अन्य देश से आये हो! एक यही क्या, कितनी कुप्रथाएँ है, जिन्हे दूषित समझते हुए भी उनका पालन करना पड़ता है। गाली गाना कौन सी अच्छी बात है? दहेज लेना कौन सी अच्छी बात है? पर लोकरीति पर न चले तो लोग उँगलियाँ उठाते है। नाच न ले जाऊँ तो लोग यही कहेंगे कि कंँजूसी के मारे नहीं लाये। मर्यादा में बट्टा लगेगा। मेरे सिद्धान्त को कौन देखता है?
पद्मसिंह बोले, अच्छा, अगर इसी रुपये को किसी दूसरी उचित रीति से खर्च कर दीजिये तब तो किसी को कंजूसी की शिकायत न रहेगी! आप दो डेरे ले जाना चाहते है। आजकल लग्न तेज है, तीन सौ से कम खर्च न पड़ेगा आप तीन सौ की जगह पाँच सौ रुपय के कम्बल लेकर अमोला के दीन दरिद्रो में बाँट दीजिये तो कैसा हो? कम से कम दो सौ मनुष्य आपको आाशीर्वाद देंगे और जबतक कम्बल का एक धागा भी रहेगा आपका यश गाते रहेंगे। यदि यह स्वीकार न हो तो अमोला में २००) की लागत से एक पक्का कुआँ बनवा दीजिये। इसी से चिरकालतक आपकी कीति बनी रहेगी। रूपयो का प्रबन्ध में कर दूँगा।
मदनसिंह ने बदनामी का जो सहारा लिया था वह इन प्रस्तावो के सामने न ठहर सका। वह कोई उत्तर सोच रहे थे कि इतनमे बैजनाथ यद्यपि उन्हें पद्मसिंह के बिगड जाने का भय था तथापि इस बात में अपनी बुद्धिकी प्रकांडता दिखाने की इच्छा उस भय से अधिक बलवती थी इसलिए बोले, भैया, हर काम के लिए एक अवसर होता है, दान के अवसरपर दान होना चाहिए, नाचके अवसरपर नाच। बेजोड़ बात कभी भली नही लगती। और फिर शहर के जानकार आदमी हों तो एक बात भी है। देहात के उजड्ड जमींदारोके सामने आप कम्बल बाँटने लगेगे तो वह आपका मुँह देखेंगे और हँसेंगे।