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सेवासदन
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उमानाथ का उत्साह शान्त हो गया। वैद्य को बुलाने की हिम्मत न पड़ी। वे जानते थे कि वैद्य को बुलाया तो गंगाजली को जो दो-चार महीने जीते है, वह भी न जी सकेगी।

गंगाजली की अवस्था दिनों दिन बिगड़ने लगी। यहाँ तक कि उसे ज्वरातिसार हो गया। जीने की आशा न रही। जिस उदर में सागू के पचाने की भी शक्ति न थी, वह जोकी रोटियाँ कैसे पचाता? निदान उसका जर्जर शरीर इन कष्टों को और अधिक न सह सका। छः मास बीमार रहकर वह दुखिया अकाल मृत्यु का ग्रास बन गई।

शान्ता का अब संसार में कोई न था। सुमनके पास उसने दो पत्र लिखे; लेकिन वहाँ से कोई जवाब न गया। शान्ता ने समझा; बहन ने भी नाता तोड़ दिया। विपत्ति में कौन साथी होता है? जब तक गंगाजली जीती थी; शान्ता उसके अञ्चल में मुँँह छिपाकर रो लिया करती थी। अब यह अव-लम्बन भी न रहा। अन्धे के हाथ से लकड़ी जाती रही। शान्ता जब तब अपनी कोठरी के कोने में मुँँह छिपाकर रोती, लेकिन घर के कोने और माता के अञ्चल में बड़ा अन्तर है। एक शीतल जल का सागर है, दूसरा मरुभूमि।

शान्ता को अब शान्ति नहीं मिलती। उसका हृदय अग्नि के सदृश दहकता रहता है, वह अपनी मामी और मामा को अपनी माता का घातक समझती है। जब गंगाजली जीती थी, तब शान्ता उसे कटु वाक्यों से बचाने के लिए यत्न करती रहती थी, वह अपनी मामी के इशारों पर दौड़ती थी, जिसमे वह माता को कुछ कह न बैठे। एक बार गंगाजली के हाथ से घी की हाँड़ी गिर पड़ी थी। शान्ता ने मामी से कहा था, यह मेरे हाथ से छूट पड़ी। इसपर उसने खूब गालियाँ खाई। वह जानती थी कि माता का हृदय व्यंग को नहीं सह सकता।

लेकिन अब शान्ता को इसका भय नहीं है। वह निराधार होकर बलवती हो गई है। अब वह उतनी सहनशील नही है, उसे जल्द क्रोध आ जाता है। वह जली कटी बातों का बहुधा उत्तर भी दे देती है। उसने अपने हृदय को कड़ी से कड़ी यन्त्रण के लिए तैयार कर लिया है। मामा से