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सेवासदन
 


सारी नेकनामी धूल में मिल जायगी। आत्मा तर्क से परास्त हो सकती है, पर परिणाम का भय, तर्क से दूर नही होता। वह पर्दा चाहता है। दारोगा जी ने यथासम्भव इस मामले को गुप्त रक्खा। मुख्तार से ताकीद कर दी कि इस बात की भनक भी किसी के कान में न पड़ने पावे। थाने के कान्सटेबिलो और अमलो से भी सारी बाते गुप्त रखी गई।

रात के नौ बजे थे। दारोगाजी ने अपने तीनो कान्सटेबिलो को किसी बहाने से थाने के बाहर भेज दिया था। चौकीदारो को भी रसद का सामान जुटाने के लिए इधर-उधर भेज दिया था और आप अकेले बैठे हुए मुख्तार की राह देख रहे थे। मुख्तार अभी तक नही लौटा, कर क्या रहा है? चौकीदार सब आकर घेर लेंगे तो बडी मुश्किल पड़ेगी। इसी से मैंने कह दिया था कि जल्द आना। अच्छा मान लो, जो महन्त तीन हजार पर भी राजी न हुआ तो? नहीं, इससे कम न लूगा। इससे कम में विवाह हो ही नही सकता।

दारोगाजी मन-ही-मन हिसाब लगाने लगे कि कितने रुपये दहेज में दूँगा और कितने खाने-पीने में खर्च करूँगा।

कोई आध घण्टे के बाद मुख्तार के आने की आहट मिली। उनकी छाती धडकने लगी। चारपाई से उठ बैठे, फिर पानदान खोल कर पान लगाने लगे कि इतने में मुख्तार भीतर आया।

कृष्णचन्द्र——कहिए?

मुख्तारदू—महन्त जी ......

कृष्णदन्द्र ने दरवाजे की तरफ देख कर कहा, रुपये लाये या नही?

मुख्तार——जी हाँ, लाया हूँँ, पर महन्त जी ने .... ..

कृष्णचन्द्र ने चारों तरफ देखकर चौकन्नी आंखो से देख कर कहा——मैं एक कोटी भी कम न करूँगा।

मुख्तार——अच्छा मेरा हक तो दीजियेगा न?

कृष्ण——अपना हक महन्त जी से लेना।

मुख्तार——पांच रुपया सैकडा तो हमारा बँधा हुआ है।