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सेवासदन
 


बोला, सीधे अपने घर मे चला गया और माता के चरण छुए। माता ने छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया।

भामा—वे कहाँ रह गई?

सदन—आती है, मैं सीधे खेतों में से चला आया।

भामा-चाचा चाची से जी भर गया न?

सदन—क्यों?

भामा-वह तो चेहरा ही कहे देता है।

सदन-—वाह, मैं मोटा हो गया हूँ।

भामा--चल झूठे, चाची ने दानों को तरसा दिया होगा।

सदन—चाची ऐसी नहीं है। यहाँ से मुझे बहुत आराम था वहाँ दूध अच्छा मिलता था।

भामा-तो रुपये क्यों मांगते थे?

सदन-—तुम्हारे प्रेम की थाह ले रहा था। इतने दिनमें तुमसे २५ रू, ही लिए न? चाचा से सात सौ ले चुका। चार सौ का तो एक घोड़ा ही लिया रेशमी कपड़े बनवाये, शहर रईस बना घूमता था। सबेरे चाची ताजा हलवा बना देती थी। उसपर सेर भर दूध, तीसरे पहर मेवे और मिठाइयाँ? मैंने वहाँ जो चैन किया वह कभी न भूलूंगा। मैंने भी सोचा कि अपनी कमाई में तो चैन कर चुका इस अवसरपर क्यों चूकूँ, सभी शौक पूरे कर लिए।

भामा को ऐसा अनुमान हुआ कि सदन की बातों में कुछ निरालापन आ गया है। उनमें कुछ शहरीपन आ गया है।

सदन ने अपने नागरिक जीवन का उस उत्साह से वर्णन किया जो युवाकाल का गुण हैं।

सरला भामा का हृदय सुभद्रा की ओर से निर्मल हो गया।

दूसरे दिन प्रात:काल गांव के मान्य पुरुष निमन्त्रित हुए और उनके सामने सदन का फलदान चढ़ गया।

सदन की प्रेमलालसा इस समय ऐसी प्रबल हो रही थी कि विवाह का कड़ी धर्म बेड़ी को सामने लखकर भी वह चिन्तित न हुआ। उसे सुमन