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सेवासदन
 

सुमन--जरा से कपड़े खराब हो गये उसपर ऐसे जामे से बाहर हो गए, यही आपकी मुहब्बत है जिसकी कथा सुनते-सुनते मेरे कान पक गये। आज उसकी कलई खुल गई। जादू सिर पर चढ़ के बोला। आपने अच्छे समय पर मुझे सचेत कर दिया। अब कृपा करके घर जाइये यहाँ फिर न आइयेगा। मुझे आप जैसे मियाँ मिठ्ठओं की जरूरत नहीं।

विट्ठलदास ऊपर बैठे हुए यह कौतुक देख रहे थे। समझ गये कि अब अभिनय समाप्त हो गया। नीचे उतर आये। दीनानाथ ने एकबार चौक कर उन्हें देखा और छडी उठाकर शीघ्रतापूर्वक नीचे चले गए।

थोडी देर बाद सुमन ऊपर से उतरी। वह केवल एक उजली साड़ी पहने थी, हाथ मे चूड़ियाँ तक न थी। उसका मुख उदास था, लेकिन इसलिए नहीं कि यह भोग-विलास अब उससे छूट रहा है, वरन् इसलिए कि वह इस अग्निकुण्ड में गिरी क्यों थी। इस उदासीनता में मलिनता न थी, वरन्ए क प्रकार का संयम था, यह किसी मदिरा सेवी के मुख पर छानेवाली उदासी नहीं थी, बल्कि उसमें त्याग और विचार आभासित हो रहा था। विट्ठलदास ने मकान में ताला डाल दिया और गाड़ी के कोच बक्सपर जा बैठे। गाड़ी चली।

बाजारों की दूकाने बन्द थी, लेकिन रास्ता चल रहा था। सुमन ने खिड़की से झांककर देखा। उसे आगे लालटेनोंं की एक सुन्दर माला दिखाई दी, लेकिन ज्यों ज्यों गाड़ी बढती थी, त्यों त्यों वह प्रकाशमाला भी आगे बढ़ती जाती थी। थोड़ी दूर पर लालटेने मिलती थी पर वह ज्योतिर्माला अभिलाषायों के सदृग दूर भागती जाती थी।

गाड़ी वेग से जा रही थी। सुमन का भावी जीवनयान भी विचार सागर में वेग के साथ हिलता, डगमगाता, तारों के ज्योतिर्माल में उलझता चला जाता था।

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सदन प्रात:काल घर गया तो अपनी चाची के हाथ में कंगन देखा।