एक क्षण में विठ्ठलदास ऊपर आ गये बोले, अरे अभी तुमने कुछ तैयारी नही की-
सुमन-मैं तैयार हूँ।
विठ्ठल-अभी विस्तरे तक नहीं बँधे।
सुमन-यहाँ की कोई वस्तु साथ न ले जाऊँगी, यह वास्तव में मेरा 'पुनर्जन्म' हो रहा है।
विठ्ठल-यह सामान क्या होगें?
सुमन-आप इसे बेचकर किसी शुभ कार्य में लगा दीजियेगा।
विठ्ठल-अच्छी बात है, मैं यहाँ ताला डाल दूँगा। तो अब उठो, गाड़ी मौजूद है।
सुमन-दस बजे से पहले नहीं चल सकती। आज मुझे अपने प्रेमियों से विदा होना है। कुछ उनकी सुननी है कुछ अपनी कहनी है। आप तब तक छतपर जाकर बैठिये, मुझे तैयार ही समझिये।
विठ्ठलदास को बुरा मालूम हुआ पर धैर्य से काम लिया। ऊपर जा के खुली हुई छत पर टहलने लगे।
सात बज गये लेकिन सदन न आया। आठ बजे तक सुमन उसकी राह देखती रही, अन्तको वह निराश हो गई। जब से वह यहाँ आने लगा, आज ही उसने नागा किया। सुमन को ऐसा मालूम होता था मानों वह किसी निर्जन स्थान में खो गई है। हृदय में एक अत्यन्त तीव्र किन्तु सरल, वेदनापूर्ण, किन्तु मनोहारी आकांक्षा का उद्वेग हो रहा था। मन पूछता था, उसके न आनेका क्या कारण है? किसी अनिष्ट की आशंका ने उसे बेचैन कर दिया।
आठ बजे सेठ चिम्मनलाल आये। सुमन उनकी गाड़ी देखते ही छज्जे पर जा बैठी। सेठ जी बहुत कठिनाई से ऊपर आए और हांफते हुए बोले, कहाँ हो देवी, आज बग्घी क्यों लौटा दी? क्या मुझसे कोई खता हुई।
सुमन---यहीं छज्जेपर चले आइये, भीतर कुछ गरमी मालूम होती है। आज सिरमें दर्द था, सैर करने को जी नहीं चाहता था।