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सेवासदन
 


तक कड़ाह न उतरे पूरे दस हजार महात्माओं का निमंत्रण था। इस यज्ञ के लिए इलाके के प्रत्येक आसामी से हल पीछे पांच रुपया चन्दा उगाहा गया था; किसी ने खुशी से दिया, किसी ने उधार लेकर जिसके पास न था उसे रुक्का ही लिखाना पड़ा। 'श्रीवाकेबिहारीजी’ की आज्ञा को कौन टाल सकता था? यदि ठाकुर जी को हार माननी पड़ी तो केवल एक अहीर से जिसका नाम चेतू था। वह बूढा दरिद्र आदमी था। कई साल से उसकी फसल खराब हो रही थी। थोड़े ही दिन हुए 'श्रोवाकेबिहारीजी’ ने उस पर इजाफा लगान की नालिश करके उसे ऋण के बोझ से और भी दबा दिया था। उसने यह चन्दा देने से इनकार किया; यहा तक कि रुक्का भी न लिखा। ठाकुर जी ऐसे द्रोही को भला कैसे क्षमा करते? एक दिन कई महात्मा चेतू को पकड लाये। ठाकुरदारे के सामने उस पर मार पडने लगी। चेतू भी बिगडा। हाथ तो बँधे हुए थे, मुंह से लात घूसां का जवाब देता रहा और जब तक जबाव बन्द न हो गई, चुप न हुआ। इतना कष्ट देकर भी ठाकुर जी को सन्तोष न हुआ।उसी रात को उसके प्राण हर लिये। प्रातःकाल चौकीदार ने थाने मे रिपोर्ट की।

दारोगा कृष्णचन्द्र को मालूम हुआ, मानो ईश्वर ने बैठे बैठाये सोने की चिडिया उनके पास भेज दी, तहकीकात करने चले।

लेकिन महन्त जी की उस इलाके में ऐसी धाक जमी हुई थी कि दारोगा जी को कोई गवाही न मिल सकी। लोग एकान्त में आकर उनसे सारा वृत्तान्त कह जाते थे, पर कोई अपना बयान न देता था।

इस प्रकार तीन-चार दिन बीत गये। महन्त जी पहले तो अकड़े रहे। उन्हें निश्चय था कि यह भेद न खुल सकेगा। लेकिन जब उन्हे पता चला कि दारोगा जी ने कई आदमियो को फोड़ लिया है तो कुछ नरम पड़े। अपने मुख्तार को दारोगा जी के पास भेजा। कुबेर की शरण ली। लेन-देन की बातचीत होने लगी। कृष्णचन्द्रने कहा, मेरा हाल तो आप लोग जानते हैं कि रिश्वत को काला नाग समझता हूँ। मुख्तार