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सेवासदन
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कई बार वहाँ देखा है, जहाँ न देखना चाहिये था। सुमन बाई के प्रेमजाल में पड़ा हुआ मालूम होता है।

शर्माजी के होश उड़ गये। बोले, यह तो आपने बुरी खबर सुनाई। वह मेरे कुल का दीपक है, अगर वह कुपथ पर चला तो मेरी जान ही पर बन जायगी। मैं शरम के मारे भाईसाहब को मुँह न दिखा सकूँगा।

यह कहते-कहते शर्माजी की आँखें सजल हो गई। फिर बोले, महाशय, उसे किसी तरह समझाइये। भाईसाहब के कानों में इस बात की भनक भी गई तो वह मेरा मुँह न देखेगें।

विट्ठल-नहीं, उसे सीधे मार्गपर लाने के लिये उद्योग किया जायगा। मुझे आजतक मालूम ही न था कि वह आपका भतीजा है। मैं आज ही इस कामपर उतारू हो जाऊँगा और सुमन कलतक वहाँ से चली आई तो वह आप ही संभल जायगा।

शर्मा-सुमन के चले आने से बाजार थोड़े ही खाली हो जायगा। किसी दूसरी के पंजे फँस जायगा। क्या करूँ, उसे घर भेज दूँ?

विट्ठल-वहाँ अब वह रह चुका, पहले तो जायगा ही नहीं, और गया भी तो दूसरे ही दिन भागेगा। यौवनकाल की दुर्वासनाएँ बड़ी प्रबल होती है। कुछ नही यह सब इसी कुप्रथा की करामात है, जिसने नगर के सार्वजनिक स्थानों को अपना कार्यक्षेत्र बना रखा है। यह कितना बड़ा अत्याचार है कि ऐसे मनोविकार पैदा करने वाले दृश्यों को गुप्त रखने के बदले हम उनकी दुकान सजाते है और अपने भोले भाले सरल बालकों की कुप्रवृतियों को जगाते है। मालूम नहीं वह कुप्रथा कैसे चली। में तो समझता हूँ कि विषयी मुसलमान बादशाहों के समय में इसका जन्म हुआ होगा। जहाँ ग्रन्थालय, धर्म सभाएँ और सुधारक संस्थाओं के स्थान होने चाहिए, वहाँ हम रूप का बाजार सजाते है। यह कुवासनाओं को नेवता देना नहीं तो और क्या है? हम जान-बूझकर युवकों को गढ़े में ढकेलते है। शोक!

शर्मा-आपने इस विषम कुछ आन्दोलन तो किया था।

विट्ठल–हाँ, किया तो था लेकिन जिस प्रकार आप एक बार मौखिक