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- (३६) सूरसागर-सारावली। कुंजनमें यमुनातीर गोपाल । सखी एक तहँ आय निकटही बोली वचन :रसाल ॥ १०३९।। वृन्दावन फूल्यो नँदनंदन सघन कुंज बहु भांत । हरि प्रतीत मुकुलित दुम पल्लव. मुखरित मधु': कर पात ।। १०४० ॥ और ठौर झिल्ली ध्वनि सुनियत मधुर मेघ गुंजार । मानो मन्मथ मिलि कुसुमाकर फूले करत विहार ॥ १०४१ ॥ अपनो सब गुण तुम्हें दिखावन स्मर वसन्त मिलि आयो। मधुर माधुरी मुकुलित पल्लव लागत परम सुहायो ॥ १०४२ ॥ गोवर्द्धन के शिखर सुभगपर फूले कुसुम पलास । सहज सुरत सुख देत संयोगिन विरहिन करत उदास ॥ १०४३ ॥ पुहुप पराग परस मधुकर गन मत्त करत गुजार । मनो कामि जन देख युवति जन विषयाशक्ति अपार ॥ १०४४ ॥ वीथिन विपिन विलोकि विविध मन मण्डित कुसुमित कुंज । मनहुँ हेम मंडपिका मुखरिति कल्पलता रस पुंज ॥ १०४५ ॥ गचलो वृन्दावन नायक राधा मारग जोवत । हिल मिल खेलो मन्मथ क्रीडा क्यों बसंत दिन खोवत ॥१०४६ ॥ सुनत । वचन ललिताक मोहन तुरत चले उठिधाय । कियो बसंत खेल वृन्दावन अद्भुत फागु मचाय ॥ १०४७ ॥ लता लता बन बन कुंजनमें खेलत फिरत बसन्त । मनहुँ. कमलमण्डलमें मधुकर विहरतहैं रसमन्त ॥ १०४८॥ उत श्यामा इत सखा मण्डली उत हरि इत ब्रजनार । मनो तामरस पारस खेलत मिल मधुकर गुजार ॥ १०४९॥ खेल बसंत बहुत सुख मान्यो हर्षे गोपी ग्वाल । विहँसिगये ब्रजराजभवनसब चञ्चलनैनविशाल ॥ १०५० ।। होरीडांडी दिवस जानके अतिफूले ब्रजराज । बैठेसिंहद्वारपै आपुन जुरिके गोपसमाज।।२०६१ ॥ विप्र बुलाय वेदविधि करिकै होरीडांडारोप :। आनन्दे सब गोप मण्डली मन्मथ कियो प्रकोप ॥१०५२॥ परिवा प्रथम दिवस होरी को नन्दराय गृहआई। सकल सौज गोपीकर लेके खेलनको मनभाई ॥ १०५३ दुइज दुहूँ दिशिते होरीमचि सुरंग गुलाल उड़ायो । मनो अनुराग दुहुँनके अन्तर सवहिन प्रकट करायो । ३०५४ ॥ तीज तरुणि मिलि पकरे मोहन गहिकर अञ्जन दीनों । मत्त मधुप बैट्यो अम्बुज पर मुखरत है सुरभीनों ॥ १०५५ ॥ चम्पकलता चौथदिन जान्यो मृगमद शीरलगायो। मनहुँ नील जलधरके ऊपर कृष्णागर लपटायो॥ १०५६ ॥ पांचे प्रमदा परमप्रीति सों केसर छिड़की घोर । मनहुँ सुधानिधि वर्षत धनपर. अमृत धार चहुओर ॥ १०५७॥ छठि छरागनी गाय रिझावत अति नागर बलवीर । खेलत फाग संग । गोपिनके गोपवृन्दकी भीर ॥ १.०५८ ॥ सातें रिजि. सुगन्ध सबं सुन्दरि लेआई. उपहार । बल मोहन को हँसत खेलावत रीझ भरत अकवार ।। १०६९ ॥ आठे अति आतुर अबला प्रिय चुम्ब न दीन्हों गाल । नाना विधि भृगार बनाये बेंदा दीन्हों भालं ॥१०६० ॥ नवमी नौसत साजि । राधिका चन्द्रावलि ब्रजनार । हो हो करत पलास कुसुम रंग वर्षतहैं जो अपार ॥ १०६१ ॥ दशमी दशौ दिशा भइँ पूरित सुरंग सवीर गुलाल । मनु प्रीतम मिलिवेके कारण फूले नयन विशाल ॥१९६२ ॥ एकादशी एक सखि आई डारयो सुंभगअबीर । एकहाथ पीताम्बर पक रयो छिरकत कुमकुम नीरं ॥१०६३॥ द्वादशि मची दुईदिशि. होरी इत गोपी उत्त खाल । इत नायक बलं मोहन दोऊ उत राधा नवलाल ॥ १.०६४ ॥ तेरस तरुणी सब मिलके यह ॥ कीन्हों कछुक उपाय । तोक सुबल मधु मंगल बोल्यो सबहिन मतो सुंनाय ॥ १०६५ ॥ चौदः शि चहूं दिशा सो मिलिके गठ जोरो गहि भोर । मन मोहन पिय दूलह राजत दुलहिन राधा गोर ।। १०६६ ॥ देखि कुहूं कुसुमाकर फूल्यो मधुप करत गुंजार । चन्द्रावलि केसर ले आई छि