- सूरसागर-सारावली। (३१) चीर कदमपर बैव्यो सबहिन हाहाखाय ॥ ८९१ ॥ बहुत भयेही ढीठ सांवरे मुखपर गारीदेत तुम्हरेडर हम डरपत नाहिंन कहा कॅपावतवेत ॥ ८९२ ॥ श्याम सखनसों कहेउ टेरदे घेरो सब अब जाय । बहुत नीठ यह भई ग्वालिनी मटुकी लेहु छिड़ाय ।। ८९३ ॥ जाय श्याम कंकणकर लीनो गहि हारावलि तोर । लूट लूट दधिखात सांवरो जहां सांकरीखोर ॥ ८९४ ॥ इन्द्रा वृन्दा और राधिका चन्द्रावलि सुकुमारि । विमल विमल दधिखात सवनको करत बहुत मनुहारि ॥ ८९५ ॥ गहि बहियां ले चले श्याम धन सपन कुंजके द्वार । पहिले सखी सबै रचिराखी कुसुमन सेज सँवार ॥ ८९६ ॥ नाना केलि सखिन सँग विहरत नागर नंदकुमार । आलिंगन चुम्बन परिरंभन भेटन भरि अँकवार ॥ ८९७ ॥ श्रम जल विंदु इन्दु आनन पर राजत अतिसुकुमार ॥ मानो विविध भाव मिल विलसत मगन सिंधुरससार ॥ ८९८ ॥ कुंजरंध्र अवलोकि सहचरी अपनो तन मन वारे । निरख निरख दंपति नेतन सुख तोर तोर तनडारे ॥ ८९९ ॥ यह अवलोकि देव गंधर्व मुनि बरसत कुसुम अपार। जयजय करत वार नीराजन बोलत जय जयकार ॥ ९०० ॥ गोवर्द्धनकी सघन कंदरा कीनो रौनिनिवास । भोर भये निजधाम चले दोउ अतिआनन्द विलास ॥ ९०१ ॥ नन्दधामहरि वहार पधारे पौठरहे निजसैन । यशुमतिमात जगावत भोरहि जागे अम्बुज नैन ॥ ९०२ ॥ करी मुखारी और कलेऊ कीनो जल असनान । कार शृंगारचले दोउ भइया खेलनको सुखदान ॥ ॥९०३॥कहुँ खेलत-मिल ग्वाल मंडली आंख मीचली खेल । चढ़ा चढ़ीको खेल सखनमें खेलत हैं रसरेल ॥ ९०४॥ कहूँ आमरू डार विटपकी खेलत सखन मझार । कूद कूद धरणी सब धावत दाँवदेत किलकार ।। ९०५ ॥ भोजन समय जान यशुमतिने लीने दुहुँन बुलाय । बैठ आय यशुमति कि गोदमें आनंद उर न समाय ॥ ९०६॥ बहुविधिके पकवान बनाये परसत यशुमति माय । आरोगित वलमोहन दोऊ सुख देखत ब्रजराय ॥ ९०७॥ कवहूं कवर खात मिरचनकी लागी दशन टकोर । भाज चले तव गहे रोहिणी लाई बहुत निहोर ॥९०८॥ भोजन करि नाना विधि दोऊ लीनो मठा सलोनो । अँचवन करि ब्रजराज पधारे वल मोहन सुख मानो ॥ ९०९॥ वीरीखाय चले खेलनको वीच मिली जनार । ले चलि पकर बाँह राधापै सपन कुंजके द्वार। ॥ ९१० ।। राधा सो मिलि अति सुख उपज्यो उन पूंछी इक बात । कहो जु आज रैन कहँ सोये हम देखे तुम जात ॥ ९११॥ तव हरि कहेउ सुनो मृगनैनी गाय गई यक दौर । ताको लेन गयो | गोवर्धन सोय रहेउँ तेहि ठौर ॥ ९१२॥ कंद मूल फल दीने गोधन सो निशिको मैं खायो । भोर भये उठि तेरे आयो चरण कमल परसायो॥ ९१३॥ निजप्रतिविव विलोकि राधिका हरिनख मंडलमाह । द्वितियरूप देखे अबलाको मान बढयो तनछाहँ ॥ ९१४ ॥ चली रिसाय कुंज मृग नयनी जहँ अति करत गुंजार । बैठी जाय एकांत भवनमें जहां मानगृह चार ॥ ९१९ ॥ नन्द कुँवर विरहन राधाके विरह भये भरिपूर । वैठे जाय एकांत कुंजमें सखा कियो सब दूर ॥९१६॥ ललिता बोल कही मृदुवाणी कृष्ण विमल दलनैन । विन राधा मोहिं कलनपरत है कहत मधुर मृदु वैन ॥ ९१७ ॥ वेगजाय परि पाय राधिका विनती करो सुनाय । दरशन देउ सकल दुख मेटो तुम विन रहेउ न जाय ॥ ९१८ ॥ तुम विन खानपान नहिं भावत गोचारन शृंगार । रैन नींद नहिं परत निरंतर संभापन व्यवहार ।। ९१९॥ करि दंडवत चली ललिता जो गई राधिका गेह। पायन पर पर बहुत विनय कर सफल करनको नेह ॥ ९२० ॥ वैगि चलो वृषभानुनन्दनी ।
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