(३०) सूरसागर-सारावली। एक दिना रुक्मिणि सो माधव करत बात सुखदाई । सुनु रुक्मिणि राधिका बिना मोहिं पल सम कल्प विहाई ॥ ८६१ ॥ कनकभूमि रचि खचित द्वारका कुंजनकी छविनाहीं । गोवर्द्धन पर्वत | के ऊपर बोलतमोर सुहाहीं॥ ८६२॥ यमुनातीर भीर खग मृगकी मोहिं नितप्रति सुधि आवै। वृन्दा विपिन राधिका मन्दिर नितप्रति लाड़लड़ावै ॥ ८६३ ॥ राति दिवस रस श्रवत सुधामें कामधेनु दरशाई । लूट लूट दधिखात सखनसँग तैसो स्वाद न पाई ॥ ८६४ ॥ पटरस भोजन | नानाविधिके करत महलके माहीं । छाकेखात ग्वालमंडल में वैसो तोसुखनाहीं।। ८६५ ॥ जन्मभूमि देखनके कारण मेरोमन ललचावे । धौरी धेनु बुलावन कारण मधुरे वेनु बजावे ।। ८६६ ॥ रास विलास विविध मैं कीन्हें संग राधिका लीन्हें । कीन्हें केलि विविध गोपिनसों सबहिनको सुखदीन्हें।। ॥८६७॥ बलमोहन फिर ब्रजहि पधारे ऊधोको सँगलीने । दीन्होंवास चरणरज गोपिन गुल्म लता रस भीने।।८६८||सदा विलास करत गोकुलमें धन धन यशमति माताज्यों दीपकते दीपक कीन्हों भये द्वारकानाथ ॥ ८६९॥ नित प्रति मंगल रहत महरके नितप्रति बजत बधाई । नितप्रति मंगल कलश धरावत नितप्रति वेद पढ़ाई॥८७०॥श्रीवृषभानु रायके आंगन नितप्रति बजत बधाई। नित प्रति मिल सुनि राजमण्डली मंगल घोष कराई।।८७१॥वाल केलि क्रीडत ब्रज आंगन यशुमतिको सुख दीन्हों। तरुण रूप धरि गोपिनके हित सबको चित हरि लीन्हों ॥८७२॥ चन्द्रावली गोपकी कन्या चन्द्रभाग गृहजाई । भई किशोर श्याम ने देखी अद्भुत प्रीति बढाई ।। ८७३ ॥ तव ललिता पूछयो नीके कर केहि विधि श्याम मिलाई । अब न परत मोकू कलक्षणहूं जियमें अति अकुलाई। ॥ ८७४ ।। तब उन कहेउ शीश गोरसले वेचनके मिस आओ। गोवर्द्धन पर गोविंद खेलत निरख परमसुख पाओ ॥ ८७९ ॥ करि शृंगार चली चन्द्रावलि नख शिष भूषणसाजै । ज्यों करने, गजराज विलोकत ढूंढतहै अतिगाजै ।। ८७६ ॥ गोवर्द्धनके शिखर चारुपर सखा वृन्द सँग लीन्हें गोपिन देख टेर हरि कीन्हों दान लेन मन कीन्हें ॥ ८७७॥ राखो घेरि सकल युवतिनको सखा. वृन्दसों भाख्यो । आपु जाय पकरयो कोमल कर दधि अमृत रस चाख्यो । ८७८॥ देहो दधि कोदान नागरी गहरन लायोचित्त । तुमरेकाज नित्य हमठाढ़े अरसे अपनो वित्त ॥ ८७९ ।। वृन्दावनमा धेनु चरावत मांगत गोरस दान। नाना खेल सखन सँग खेलत तुम पायो नृपयान ॥ ८८०॥ अरी ग्वालि मह मत्त वचनकी बोलत वचन विचार । अचलराज गोवर्द्धन मेरो वृन्दावन मंझार ॥ ८८१ ॥जो तुम राजा आप कहावत वृन्दावनकी ठौर । लूट लूट दधिखात सवनको सबै चोरनके मौर ॥ ८८२॥ चोरी करत भक्तके चितकी अरु दधि अरु नवनीत । सखा वृन्द सब भीत हमारे बड़ीराज रजनीत ॥ ८८३ ॥ जो तुम राजनीत सब जानत बहुत वनावतवात । जब तुम जन्म लियो मथुरामें आये आधीरात ॥ ८८४॥ सुनरी ग्वालिगॅवार बातकी बोलत बिना विचार । कमल कोषमें बसत मधुप ज्यों त्यों भुव रहे मुरार ॥ ८८५ ॥ दूध दहीके नात बनावत बातें बहुत गोपाल । गदि गढ़ि छोलत कहा रावरे लूटतही ब्रजबाल ॥८८६॥ जोप्रभु देहधरे नहिं भुवपर दीन अधम को तारे । वढे असुर पुहुमी पर खल अति तिन्हें तुरतको मारे।। ८८७ ॥ योग युक्तकर ध्यान लगावत योगसिद्ध कर ज्ञान । नतिनेति करि निगम वतावत ताहि होत निर मान ॥ ८८८ ॥ योगसांख्य अरु ज्ञान भामिनी माया हृदय विनास । प्रेम भक्त मेरो यशगावे तेहि घट मेरो वास ॥ ८८९ ॥ मुखऊपर कह कहों लायके अन उत्तरको खोर । जब यशुमतिने उखल बांधे हमहीं दीन्हेंछोर ।। ८९० ॥वालक निपट अयान ग्वालिनी कछु सुधि जानिनजाय । लेकर
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।