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सूरसागर-सारावली। (२७) दलं लोचन भक्तन भये सहाई ॥ ७७२ ॥ पांडव कुलके सहाय भये हरि जहँ तहँ संगहि डाले। दुर्योधन सों कहेउ दूत है भक्त पक्ष दृढ बोले ॥ ७७३ ।। पांच गांव पाण्डव को दीजै सुनो नृपति मम वात । और राज सब तुमही करिये निपट जगत विख्यात ॥ ७७४ ॥ प्राची और प्रतीचि उदीची और अवाची मान । इन्द्रप्रस्थ वीचमें दीजै और राज तुव जान ॥ ७७५ ॥ सुनिकै क्रोध भयो दुर्योधन सब पाण्डवको राज तुमरो कुल सब नाश होयगो कहि जो चले ब्रजराज ॥७७६॥ बहुत दुःख दीन्हों पाण्डवको अबलों मैं सहि लीन्हों । लाप भवन बैठार दुटने भोजन में विप दीन्हों।।७७७ावन वन फिरे अर्क तूलन ज्यों वास विराटहि कीन्हों । अन्तहि गुप्त रहे तापुरमें भेद काहु नहिं दीन्हों।।७७८॥जुरे नृपति अक्षोन अठारह भयो युद्ध अतिभारीरथ हांकत गोविंद अर्जुन को दीन्ह शस्त्र सबडारी॥७७९॥करी प्रतिज्ञा कहेउ भीष्म मुख पुनि पुनि देव मनाऊोजो तुम्हरे कर शर न गहाऊं गंगासुत न कहाऊ७८०॥ चढे प्रवल दल दोउ ओरके विच अर्जुन रथ ठाटो। इत पारथ गंगेय वली उत जुरो युद्ध अति गाढो ॥ ७८१ ।। दशदिन लरे वली गंगासुत श्याम प्रतिज्ञा जानी। सत्य वचन हरि कियो भक्तको निगम झूठकर वानी ॥ ७८२॥ धरि रथ चक्र श्याम नि ज करमें जवाहि भीष्म पर डारो । शीतल भई चक्रकी ज्वाला जब शिर तिलक निहारो ॥७८३॥ धन्य धन्य कहि परे आय पग गुणनिधान गंगेव । तव हरि कहेउ विपुल बल तुम्हरो जीति लिये सब देव ।। ७८४ ॥ तव उन कहेउ चरण आपनमें राख्यो निशिदिन ध्यान । मोरि प्रतिज्ञा तुम राखी है मेटि वेदकी कान ।। ७८५ ॥ डार शस्त्र शर शय्या सोये हरि चरणन चित लायो । उत्तर दिशि.रवि जान देह तजि वहां परमपद पायो ॥ ७८६ ॥ नृपति युधिष्ठिर राजतिलक दै मारि दुए की भीर । द्रोण कर्ण अरु शल्य मुक्तकार मेटी जगकी पीर ॥ ७८७ ।। गोविंद आय द्वारका निज गृह अति आनन्द बढ़ायो। घर घर मंगल महा कुलाहल यदुकुल होत वधायो॥ ॥ ७८८ ॥ शल्य नृपति तपकिय पंचानन तापै यह वर पायो । दियो बनाय नगर गोपुर में काहुन जात लिवायो ।। ७८९ ॥ आय द्वारका शोर कियो उन हरि हस्तिनापुर जाने । प्रद्युमन लरे सप्त दश दोदिन रंचहार नहिं माने ॥ ७९० ॥ हरि अपसगुन जानि हस्तिनपुर बैठ तुरत रथ धाये। बहुत देशको पावन करि करि सांझद्वारकाआये ।। ७९१ ॥ कीन्होंयुद्ध आय शालवसों उन बहु मायाकीन्हीं । जलमें थल थलमें जल देख्यो श्याम दूरकर दीन्हीं ।। ७९२ ॥ माया दूर करी नँद नन्दन चक्र दियो शिरडार । क्षणहीं मांझ दुष्टसंहारो भुवकोभार उतार ॥ ७९३ ॥ जय जयकार करत देवांगन वरपत कुसुम अपार । कियो प्रवेश द्वारका मोहन घर घर मंगलचार ॥ ७९१॥ राजसूय करवाय श्यामघन जरासंध मरवायो। दन्तवक महिपाल महाबल विदुरथ प्राण नशायो। ॥ ७९५ ।। बालक मृतक देवकी मांगे सो छिनमें हरिलाये। दीन्हों दरश भक्त नृपवलिको तनुके ताप नशाये ।। ७९६॥ बालक आय देवकी जाने स्तन पान कराये । हरिको शेपपान करिके वे हरिकेपद पहुँचाये ।। ७९७ ।। एकदिना यदुनाथ संग सब विप्र मण्डली लीन्हें । मिथिला चले जनक राजा पै दरश कृपाकरि दीन्हें ।। ७९८ ॥ तहांवसत श्रुतदेव महामुनि सुनि दर्शनको धायो । तब उन कहेउ चलो मेरे गृह हरि स्वीकार करायो॥ ७९९॥ नृपति काउ मेरे गृह चलिये करो कृतारथ मोय । ताहूके हरि आफु पधारे प्रकटधरे वपुदोय ॥ ८०० ॥ देख चरित्र विनोद लालके विस्मितभे द्विजराय । अद्भुतकेलि कृपाकरिकीन्हीं द्विजको ज्ञान हढाय ।।.८०१ ॥ बहुत. दिवसलों कृपाकरी हरि जनकराय सुखदीन्हों । बहुरि पधारे पुरी