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सूरसागर।


सब लोगनको । ब्रह्मा राजसगुण अधिकारी शिवतामस अधिकारी। विष्णु सत्य केवल अधिकारी विप्रलात उरधारी । मुख प्रसन्न शीतल सुभाउ नित देखत नैन सिराइ । इह जियजानि भजो सवकोई सूरप्रभू यदुराइ ॥३७॥ विलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ । हरि चरणार्विंद उरधरो ॥ हरि इकदिन निज सभा मँझार । वैठे हते सहित परिवार ॥ अर्जुनहूं ता ठौर सिधाये । शंखचूड तब वचन सुनायद्विारावती वसत सव सुखी । महीएक अह अरु निश दुखी ॥ मेरे पुत्र होतहैं जवहीं । अंतर्ध्यान होत सो तवहीं । अर्जुन कह्यो द्वारका माहीं । ऐसो कोउ धनुधारी नाहीं ॥ जो तुअ सुतकी रक्षाकरै । अरु तेरो पर दुःख परिहरै ॥ मैं तुभं सुतकी रक्षाकरों । अरु तेरो इह दुःख परिहरों ॥ यह प्रतिज्ञा जो न निवाही । तौ तनु अपनो पावक दाहों ॥ विप्र कह्यो तुम श्यामकि राम । कै प्रद्युम्न अनिरुद्ध अभिराम ॥ अर्जुन कहो मैं उनमें नाहीं । पैहौं उनके दासन माहीं ॥ अर्जुन है मेरो निजनाम । धनुष काम दियो मम अभिराम ॥ तू निहर्चित वैठ गृहजाइ । समै होय कहु मोसों आइ ॥ पुत्र प्रसूति समय जब आयो । विप्र अर्जुनसों आनि सुनायो । अजुन तब शर पंजर कियो । पवन संचार रहन नहिं दियो । गृहको द्वारो राख्यो जहां । अर्जुन सावधान भयो तहां ब्राह्मण कह्यो समय अव भयो । अर्जुन धनुष वाण तब गयो।बालक है भयो अंतध्यान । अर्जुनदै रह्यो चकृत समान ॥ विप्र नारि तब गारी दई । लख्यो प्रतिज्ञा कहा होइ गई । तें पुरुपा रथ कहां ते पायो । मिथ्याही कहि वाद बढ़ायो । हरिसों दुःख अबकहिहौं जाई । अर्जुन कह्यो तासों याभाई ॥ तेरे सुतको मैं अब ल्याऊं। तेरो सब संताप नशाकं । अर्जुन तिहूंलोक फिरि आयो । ऐसो बालक कहूं नपायो । अर्जुन वीर स्यात तन आए । हरि अर्जुनसों वचन सुनाए । तुम्ह बालक काही नहि राख्यो । सो वृत्तांत हमैं तुम भाष्यो । कह्यो जो में प्रतिज्ञा करी । सो मोसों पूरण नहिंपरीबालक होत कौन लैगयो। सोमोको कछु ज्ञान नभयो ।। म देख्यो तहि त्रिभुवन जाइ । पै ताकी कहुँ सुधि नहिं पाइ ॥ विप्रकाज प्रभु अव तुम करो। नातरु मोको जानो मरो । हरि रथ पर अर्जुन वैठाइ । पहुँचे लोकालोकहि जाइ । उहहूंते जब आगे धाई । दारुक हरिसों वचन सुनाई ।। अंधकार मग नहिं दरशाइ याते रथ नहि सकत चलाइ ॥ चक्र सुदर्शन आगे कियो । कोटिकरवि परकाशित भयो । तव हरि अर्जुन पहुँचे तहां । गतिनाहीं काहूकी जहां ॥ तहां जाइ देख्यो इक रूप । तासम और न द्वितिय स्वरूप ।। नैन निरखि चकृत होइ गये । मन वाणी दोऊ थकिरये। कहिवे योग होइतो कहै। तहां कछू आकारनलहै ॥ शयन नाग फन मुकुट स्थान । नैन प्रभा मानो कोटिकभान ॥ हार अर्जुन कियो निरखि प्रणाम । सुन्यो तहां एक शन्द अभिराम ॥ तुम्हरे हेतु चरित्र यह कियो । बोझ पृथ्वीको हरखो भयो ॥ आवहु अब तुम अपने धाम । पूरण भये सुरनके काम ॥ दशोपुत्र ब्राह्मणके दीन्हें । हरि अर्जुन प्रणाम तब कीन्हें ॥ नहिं जान्यो मैं कहां सिधायो । और यहां मैं कैसे आयो॥ हरि अर्जुनको निज जन जान । लैगये तहां न जहां शशि भान ॥ निजस्वरूप अपनो दरशायो। जोकछु देख्यो वानहिंपायो । ऐसे हैं त्रिभुवनपति राई। कहा सकै रसना गुणगाई ॥ ज्यों शुक नृपसों कहि ससुझायो । सूरदास ताही विधि गायो ॥३८॥

इति श्रीभागवतेमहापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्दै सूरसागरे सूरदासकते-संपूर्ण ॥शुभमस्तु॥