भक्तन चरण कमल चितलाइ ॥ थावर जंगम सब तुम आश्रित सनक सनंदन वानी । ब्रह्मा शिव स्तुति नसकै कार मैं वपुरो केहिमाहीं । योग ध्यान करि देखत योगी भक्तसदा मोहिं प्यारो ब्रजवनिता भन्यो मोहिं नारद मैं तेहि पार उतारो ॥ नारद ज्योंही स्तुति कीनी शुक
त्यों कहि समुझाई । सुर प्रेम भक्तिकी महिमा श्रीपति श्रीमुखगाई ३१॥ अध्याय ॥ ८७ ॥ सुभद्राविवाह वर्णन ॥ विलावल ॥ भक्तवछल श्रीयादव राई भिक्तकाज हरि कृत सुखदाई ॥ अर्जुनतीरथ यात्रा सिधाये । फिरत फिरत द्वारावती आये ॥ सुन्यो विचार करत बलयेइ । दुर्योधनहिं सुभद्रा देइ ॥ तब अर्जुनके मन इह आई । याको मैं लैजाउँ दुराई ॥ भेपतापसीको तिन गह्यो । चारि मास द्वारा वति रह्यो । वल देवताको नेवत बुलायो । भोजन हेतु सो बल गृह आयो । लख्यो सुभद्रा इह संन्यासी । राजकुंवर कियो भेप उदासी ॥ मेरे मनमें इह उत्साह । मेरो या सँग होहि विवाह ॥ इकदिन सो हरि मंदिरगई। वहां भेंट पारथसों भई ॥ देखि ताहि रथ ठाढोकियो। हरि दोउको
चेहरो लिखिलियोधिनुपवाण अपनो तव दियो । अर्जुन सावधान होइ लियो यह सुनिकै हलधर उठिधायो । तव हरि अर्जुन नाम सुनायो ।। बल को जो तुम मन ऐसी आइ । तो तुम क्यों कीन्हीं न सगाइ ॥ हरि कह्यो अवहुँ बुलावह ताहि । भली भांतिको करो विवाहि ॥ तव वल पारथ तुरत बुलायो । शुद्ध मुहूरत लग्न धरायो । करि विवाह अर्जुन घर आये । सूरदास जन मंगल गाये॥३४॥ रागनट ॥ विनती करत गोविंद गोसाई । दे सबसौंन अनंत लोकपति निपट रंककी नाई ॥ धरि धन धाम सजनक आगे श्याम सकुचि करजोरे । टहल योग इह कुँवार सुभद्रा तुम सम नाहीं कोरे । इतनी सुनत पंडुके नंदन कह जो यह वचन प्रभु दीजै । सूरज दीनबंधु अव इहि कुल कन्या
जन्म नकीन ॥३३॥ अध्याय ॥ ८८ ॥ ननफदेवमिलाप परमारयाहरि ॥ हरि हरि सुमिरहु सब कोई । रावरंक हरि गिनत नदोई ॥ जो सुमिरै ताकी गतिहोई । हरि हरि हरि सुमिरहु सब कोई ॥ श्रुतदेव ब्राह्मण सुमिरयो हरि ताकी भात हृदय में धरी ॥राउ जनक हरि सुमिरन कीन्हो । हरिजू सोउ हृदय
धरि लीन्हो ॥ तव हरि ऋपिहि पथिक संग किये । तिनके देश प्रीति वश गये। दोउ रूप हरि दोउनको मिले। तोपि तेहि पुनि निजपुर चले ॥ हरिजीको यह सहज सुभाव । रंक होइ भाव कोउ रावाजोहितकर ताहि हित कर सूरप्रभू नाहिं अंतर धरे३४॥ रागकान्हरो ॥ घरही वैठे दोऊ दासाऋद्धि सिद्धि मुक्ति अभयपद दायक भाइ मिले प्रभु हरि अनयास ॥ आये सुने श्याम उपवनमें भेटलई भुज परमसुवास चर्चित गात चंद्रमुख चितवत उर सरवर भयो कमल विगास ॥ भूपति चमर विप्र कर वस्तर करत वाउ अति अंग हुलासाआनंद उमगि चल्यो नैनन जल सुरत देव द्विज नृप बहुलासाजाको आसन ध्यान धरत मुनि शंकर शीशजटा दिग अंबर तास । कामदहन गिरि
कंदर आसन वा मूरति की तऊ पिआसाभक्तवछलता प्रगठ करीहै भयो विप्र धरकर कलि ग्रास । सूरदास स्वामी सुमिरन वश अछत निरंजन सेवा पास ३५॥ अध्याय ॥ ८९ ॥ भस्मासुर वध ॥ धनाश्री ॥ तऊ चाहत कृपा तुम्हारी। जिनके वश अनमुख अनेक गन अनुचर आज्ञाकारी ॥ महादेव
वर दियो असुरको जव उन निज तनु जारयो । शिवके शीशधरन लाग्यो कर शिव वैकुंठ सिधारयो । विप्ररूप हरि कह्यो असुरसों इह वर सत्य नहोइ । शिर अपने परधरो असुरकर भस्म होइ गयो सोइ ॥ शिव कैलास गये स्तुतिकरि आनंद उपज्यो भारी । सूरदास हरिको यशगायो श्रीभागवत अनुसारी ॥३६॥ अध्याय ॥ ९० ॥ भुगपरीक्षा अर्जुन निजरूप दर्शन ॥ शंखचूड पुत्रल्यावन ॥ विलावल ॥ हरिसों ठाकुर और न जनकोतिहूं लोक भगुजाइ आइ कहो या विधि
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दशमस्कन्ध१०-उतरार्ध