भाग्य प्रभु पाये । शिव मुनि मन दुर्लभ चरणांवुन जनहि प्रगट परसाए ।। हरपित सुजन सखा त्रिय बालक कृष्णमिलन जियभाये। सूरदास सकल लोचन जनु शशि चकोर कुलपाए ॥१७॥ सारंग ॥ हरिजी इते दिन कहाँ लगाये । तवाहि अवधि मैं कहत न समुझी गनत अचानक आये । भली करी जु अबाहे इन नैनन सुंदर चरण दिखाये । जानी कृपाराज काजहुँ हम निमिष नहीं विसराए । विरहिनि विकल विलोकि सूरप्रभु धाइ हृदय करलाए। कछु मुसुकाइ कह्यो सारथि
सुन रथके तुरंग छुराए ॥१८॥ मलार ॥ हरिजू वै सुख बहुरि कहां । यदपि नैन निरखत वह मूरति फिरि मन जात तहां ।। मुखमुरली शिरमोर पखौवा गर घुघुचनिको हार । आगे धेनु रेनु तनु मंडित चितवन तिरछी चाल । राति दिवस अंग-अंग अपने हित हँसि मिलि खेलत खात ।
सूर देखि वा प्रभुता उनकी कहिः नहिं आवै बात ॥१९॥धनाश्री ॥ रुक्मिणि राधा ऐसे बैठीं । जैसे बहुत दिननकी विछुरी एक वापकी बेटी येक सुभाउ येकले दोऊ दोऊ हरिको प्यारी । येक प्राण मन एक दुहुँनको तनु करि देखिअत न्यारी ॥ निज मंदिर लै गई रुक्मिणी पहुनाई विधि ठानी। सूरदासप्रभु तहँ पग धारे जहां दोऊ ठकुरानी ॥२०॥ धनाश्री ॥ राधा माधव भेट
भई। राधा माधव माधव राधा कीट भंग गति होइ जोगई ॥ माधव राधाके रंग राचे राधा माधव रंगरई । माधो राधा प्रीति निरंतर रसना कहिनगई ॥ विहाँसि कह्यो हम तुम नाहं अंतर यह कहि ब्रजपठई । सूरदास प्रभु राधा माधव ब्रजविहार नित नई नई ॥२१॥ धनाश्री ॥ राधावचन सखी मति ॥ करत कछु नाही आजु बनी । हरि आए हौं रही ठगीसी जैसे चित्तधनी ॥ आसन हर्षि हृदय नहि दीन्हो कमलकुटी अपनी । न्यवछावर उर अरव न अंचल जलधारा जो बनी ॥ कंचुकी ते कुचकलस प्रगट टूटिनतरक तनी । अब उपजी अतिलाज़ मनहिमन समुझत निजकरनी ॥ मुख देखत न्यारेसी रहिहौं विनु बुधिमति संजनी । तदपि सूर मेरी यह जडता मंगल मांझ गनी ॥२२॥ भगवान वचन ब्रजवासी मति ॥ सारंग ॥ ब्रजवासिनसों को सबनते ब्रजहित मेरे। तुमसों मैं नहिं दूररहतहौं सबहिनके नियरे । भने मोहिं जो कोइ भनौं मैं तिनको भाई । मुकुरमांह ज्यों रूप आपनो आपुन सम दरशाई । यह कहिकै समदे सकल जन नयनरहे जल छाईसुरश्यामको प्रेम कछू मोपै कह्यो नजाई ॥२३॥ सारंग ॥ सबहिनते सबहै जन मेरो। जन्म जन्म सुन सुबल सुदामां निवह्यो इह प्रण मेरो ॥ ब्रह्मादिक इंद्रादि आदिदै जानत बलि वसि केरो । यक उपहास त्रास उठि चलते तजिकै अपनों खेरो ॥ कहा भयो जो देश द्वारका कीन्हों दूरि बसेरो। आपुनहीं या ब्रजके कारण करिहौं फिरि फिरि । फेरो। यहां वहां हम फिरत साधहित करत असाध अहेरो । सूर हृदय ते टरत न गोकुल अंग ।
छुअतही तेरो ॥२४ ॥ वचन ब्रजवासी ॥ सारंग ॥ हमतो इतनेहीं सचुपायो। सुंदर श्याम कमलदल ।। लोचन वहुरो दरश देखायो ॥ कहा भयो जो लोग कहतहैं कान्ह द्वारका छायो । मुनि यह दशा विरही लोगनकी उठि आतुर होइ धायो ॥ रजक धेनु गज केस मारिकै किया आफ्नो भायो महाराज होय मातु पिता मिलिं तऊ न ब्रजविसरायो ॥ गोपी गोप औ नंद चले मिलि प्रेम समुद्र वहायो । येते मान कृपाल निरंतर नैननीर ढरिआयो। यद्यपि राज बहुत प्रभुता सुनि हारि हित अधिक जनायो । वैसहि सूर बहुरि नंदनंदनं घर घर माखन खायो ॥२५॥ अध्याय ॥ ८३ ॥ अष्टनायिका दौंपदी प्रश्न॥ राग विलावल ॥ हरि हरि हरि सुमिरह दिनराति। नातरु जन्म अकारथ जाति ॥ सौबात । नकी एक बात । हार हरि हरि सुमिरो दिन रात ॥ हरि कुरुक्षेत्र अन्हान सिधाये । तव सब ॥
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सूरसागर।