मिलें सुंदर सखी यदपि निकटहै आई।कहाक केहिभांति जाउँ अब पेषहि नहिँ तिन पाई । सूर श्याम सुंदर घन दरशेतनकी ताप नशाई ॥९॥सखीवचनराधिकापति ॥ केदारोग</smal> ॥ अब हरि आइहैं जिन सोचौमुन विधु मुखी वारि नयनन ते अब तू काहे मोचै ॥ सत्य जानि चित चेत आनि तू अब नख क्यों तनु नोचौमदन मुरादि सँभारि सुमिरि सुख तुम समीपको वोच ॥ लैलेखनि मसि करिकरिअपने लिखि संदेश छांडि संकोचे।सूर सुविरह जनाउ करत कित प्रवल मदन रिपु पोचे ॥१०॥ गोपी संदेश श्रीभगवान मति ॥ सारंग ॥ पथिक कहियो हरिसों यह बात । भक्तवछल है विरद तिहारो हम सब किये सनाथ ॥ प्राणहमारे संग तुम्हारे हमहू हैं अब आवत । सूर श्याम सों कहत संदेशो नयनन नीर बहावत
॥११॥ कुरुक्षेत्र श्रीभगवान मिलन ॥ सारंग ॥ नंद यशोदा सब ब्रजवासी । अपने अपने शकट साजिकै मिलन चले अविनाशीकोउ गावत कोउ वेणु वजावत कोउ उतावल धावत । हरि दरशन लालसा कारन विविध मुदित सब आवत ॥ दरशन कियो आइ हरि जीको कहत सपन की साँची । प्रेम मानि कछु सुधि न रही अंग रहे श्याम रंग राची ॥ जासों जैसी भांति चाहिये ताहि मिल्यो त्यों धाइ । देश देशके नृपति देखि यह प्राण रहे अरगाइ । उमग्यो प्रेम समुद्र दशहुँ दिश परमिति कही न जाइ।सूरदास इह सुख सो जाने जाके हृदय समाइ ॥१२॥ कान्हरो ॥ तेरी जीवनि मूरि मिलहि किन माई । महाराज यदुनाथ कहावत तवहीं हुते शिशु कुँअर कन्हाई । पानि परे भुज धरे कमल मुख पेपत पूरव कथा चलाई । परमउदार पानि अवलोकत हीन जानि कछु कहत न जाई ॥ फिरिफिरि अब सन्मुखही चितवीत प्रीति सकुच जानी न दुराई । अब हँसि भेटहु कहि मोहिं निज जन वाल तिहारो हो नंद दोहाई । रोम पुलकि गदगद तनु तिहि छिन जलधारा नैनन वरपाई । मिले सुतात मात बंधू सब कुशल कुशल कार प्रश्न चलाई । आसन देइ बहुत करि विनती सुत धोखे तब बुद्धि हेराई । सूरदास प्रभु कृपाकरी अब चितहि धरे पुनि करी बड़ाई ॥१३॥ राग मलार ॥ माधव या लगि है जग जीजतु । जाते हरिसों प्रेम पुरातन बहुरि नयो कार कीजतु ॥ कहँ रवि राहु भयो रिपु मति रचि विधि संयोग बनायो । उहि उपकार आज यहि औसर हरि दरशन सचुपायो । कहां
वसहिं यदुनाथ सिंधु तट कहँ हम गोकुल वासी । वह वियोग यह मिलनि कहां अब काल चाल औरासी ॥सूरदास मुनि चरण चरचि करि सुरलोकनि रुचि मानी । तव अरु अब यह दुसह प्रमा नी निमिपो पीर न जानी ॥१४॥ श्रीभगवान रुक्मिणि मत्युतर ॥ कान्हरो ॥ हरि जूसों बूझत है रुक्मिणि
इनमें को वृषभानु किशोरी । वारेक हमैं देखावो अपने बालापनकी जोरी ॥ जाको हेतु निरंतर लीये डोलत ब्रजकी खोरी । अति आतुर होइ गाइ दुहावन जाते पर घर चोरी ॥ रजनी सेज सु करि सुमननकी नवपल्लव पुट तोरी । विन देखे तोके मन तरसै छिन वीते युग मोरी।सूर सोच सुख कार भरि लोचन अंतर प्रीति न थोरीसिथिल गात मुख वचन फुरत नहिं है जो गई मति भोरी ॥१६॥ धनाश्री ॥ वूझति है रुक्मिाणि पिय इनमें को वृपभानु किशोरीनिक हमैं देखरावहु अपनी बाला पनकी जोरी ॥ परमंचतुर जिन कीने मोहन अल्प वैसही थोरी। बारते जिहि यह पढ़ायो बुधि बल कलविधि चोरी ॥ जाके गुणगनि गुथति माल कबहूँ उरते नहिं छोरी । सुमिरन सदा वसतही रसना दृष्टि न इत उत मोरी । वह देखो युवति वृंद में ठाढी नीलवसनं तनुगोरी । सूरदास मेरो मन वाकी चितवन देखि हरयोरी ॥१६॥ मारू ॥ गोविंद परम कृपा मैं जानी । निगम जु कहत दयालु शिरोमणि सत्य सुनिधि वानी । अब ये श्रवन वरन कर स्वारथ तुम जुदरश सुख दीनो । या फल योग सुकृत नहिं समुझत दीन देखि हित कीनो ॥ यह दिन धन्य धन्य जीवन जस धन्य
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दशमस्कन्ध१०-उतरार्ध