निकसि मन भाग ॥ प्राचीदिशा पेखि पूरणं शनि लै आयो तनतातो । मानहु मदन मदन विरहि निको करि लीनी रिसरातो ॥ भ्रुकुटी कुटिल कलंक चाप मानो अति रिसिसों शरसाधे । चहुँघा किरनि पसारे पासिनि हठिकर योगिनि वांधे ॥ सुनि शठसहै प्राणपति मेरो जाको यश जग जानै । सूरसिंधु बूडत ते राख्यो ताहू कृतहि नमानै ॥१००॥ रुक्मिणि वचन श्रीभगवान मति ॥ धनाश्री ॥ रुक्मिणि बूझतहै गोपालाह । कहौ बात अपने गोकुलकी केतिक प्रीति व्रजवालहिं ॥ कहा देखि रीझे राधासों चंचल नैन विशालहिं । तब तुम गाय चरावन जाते उरधरते वनमालहि ॥ इतनी सुनत नैन भरि आये प्रेमनंदके लालहि । सूरदास प्रभु रहे मौनद्वै घोप वात जनि चालहि ॥१॥ धनाश्री ॥ रुक्मिणि मोहिं निमेष न विसरत वै व्रजवासी लोग । हम उनसों कछु भली नकीनी निशि दिन मरत वियोग। यदपि कनकमय रची द्वारका सखी सकल संभोग। तदपि मन जो हरत वंसीवट ललिताके संयोग ॥ मैं उधो पठयो गोपिनपै देइ संदेशो योग । सूरदास देखि उनकी गति किन्ह उपदेशे योग ॥ २॥ मलार ॥ रुक्मिाण मोहिं ब्रज विसरतु नाहीं । वा क्रीडा खेलत यमुनातट विमल कदमको छाहीं । गोपवधूकी भुजा कंठ धरि विहरत कुंजन माहीं । अनेक विनोद कहांलों वरणौं मोमुख वरणिनजाइ ॥ सकल सखा अरु नंद यशोदा वे चितते नट राहीं । सुत हित जानि नंद प्रतिपाले विछुरत विपति सहाहीं ॥ यद्यपि सुखनिधान द्वारावति तउ मन कहुँ न रहाहीं।सूरदास प्रभु कुंजविहारी सुमिरि सुमिरि पछिताहीं ॥३॥ धनाश्री ॥ रुक्मिणि चलहु
जनम भूमि जाहीं। यदपि तुम्हारो हतो द्वारका मथुराके सम नाहीं ॥ यमुनाके तट गाइ चरावत अमृतजल अचवाहीं । कुंजकेलि अरु भुजा कंधधरि शीतल द्रुमकी छाहीं ॥ सरस सुगंध मंद मल यागिरि विहरत कुंजन माहीं।जो क्रीडा श्रीवृंदावनमें तिहूंलोकमें नाहीं ॥ सुरभी ग्वाल नंद अरु यशु मति मम चितते नटराही।सूरदास प्रभु चतुर शिरोमाणि तिनकी सेवा कराही ॥४॥श्रीकृष्णकुरुक्षेत्रआंब न सारंगा ॥ ब्रजवासिनको हेतु हृदय में राखि सुरारी । सव यादवसों कह्यो वैठिकै सभा मझारी ॥ वडो पर्व रविगहन कहा कहों तासु बड़ाई । चलौ सवै कुरुक्षेत्र तहां मिलि न्हैये जाई ॥ तात मात निज नारिलै हरिजी सव संगा । चलेनगरके लोग साजि रथ तरल तुरंगा ॥ कुरुक्षेत्रमें आइ दियो इक दूत पठाई । नंद यशोमति गोपी ग्वाल सब सूर बुलाई ॥५॥ सखीवचन राधिकामतिशकुनविचार ॥ सारंग ॥ वायस गहगहात शुभवाणी विमल पूर्वदिशिवोली । आजुमिलाओ श्याम मनोहर तू सुनु सखी राधिके भोली।कुच भुज अधर नयन फरकत हैं विनहि वात अंचल ध्वजडोली । सोचनिवार करो मन आनंद मानो भाग्य दशा विधि खोली ॥ सुनत सुवचन सखीके सुखते पुलकित प्रेम तर कि गई चोली । सूरदास अभिलाष नंदसुत हरपी सुभग नारि अनमोली ॥६॥ केदारो ॥ गामाधवजी आवन हार भये । अंचल उडत मन होत गहगहो फरकत नैन खये । देही देखि सोच जिय अपने
चितवत सगुन दये । ऋतुवसंत फूली द्रुमवल्ली उलहेपात नये ॥ करति प्रतीति आयु आपुनते सवन शृंगार ठये ।सूरदास प्रभु मिलहु कृपाकार अवधिहु पूजिगए ॥७॥श्रीभंगवानं दूत वचन नंद यशोमति
मति ॥ धनाश्री ॥ हौं इहां तेरेही कारण आयो । तेरीसों सुन जननी यशोदा हठि गोपाल पठायो । कहा भया जो लोग कहतहैं देवकी माता जायो ॥ खान पान परिधान सबै सुख तेही लाड लडायो । इतो हमारो राज द्वारका मो जी कछू नभायो । जब जब सुरति होत उहि हितकी विछुर वच्छ ज्यों धायो । अब वेहार कुरुक्षेत्रमें आये सो मैं तुम्हें सुनायो । सव कुल सहित नंद । सूरजप्रभु हितकरिवहां बोलायोदाराधिकावचन सखीमति॥सारंगाराधा नैन नीर भरिआईकवधौं श्याम
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सूरसागर।