आये । राम गंगा और यमुना स्नान करि नीमषारण्य में जाइ न्हाय ॥ सूत तहां कथा भागवतकी कहतहैं ऋपिअठासी सहस हुते श्रोता । रामको देखि सन्मान सवही कियो सूत नहिं उठ्यो निज जानि वक्ता ॥ रामतेहि हत्यो तव सब ऋपिन मिलि कहो विप्र हत्या तुम्हें लगी भाई । वाहिनिमित्त सकल तीर्थ स्नान करो पाप जो भयो सो सब नशाई ॥ पुनि कह्यो ऋपिन दानव महा प्रबल इहां हमैं दुख देत सोई सदाई । ताहि जो हतौ तो होइ कल्याण तुम्हें हम करें यज्ञ सुखसों सदाई । राम दिन कइक ता ठौर अवरो रहे आइ वल्वल तहां दई देखाई । रुधिर औ माँसकी लगो वा करन ऋपि सकल देखिकै गये डेराई । राम हलसों पकरि मूशलसों हत्यो तेहि प्राण ताज तिन सकल सुधि विसारी । सुरन आकासते पुहुप वर्षा करी ऋपिन आशीशदै जै ध्वनि उचारी ॥ बहुरि वलभद्र परणाम करि ऋपिन्ह को पृथ्वी परदक्षिणाको सिंधाये । प्रभु रची ज्योहिं ज्यों होइ सो त्योहिं यों सूर जन हरि चरित कहि सुनाये ॥५८॥
॥ अध्याय ॥ ८० ॥ तथा ॥ ८९ ॥ सुदामा दारिद्रभंजन ॥ राग विलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो । हरि चरणाविंद उरधरो ॥ विप्र सुदामा सुमिरे हरी । ताकी सकल आपदा टरी । कहीं सो कथा सुनो चितधाराकहै सुनै सो लहै सुखसारविप्र सुदामा परमकुलीनाविष्णुभक्त सो अति लवलीन । भिक्षा वृत्ति उदर नितभरै । निशिदिन हरि हार सुमिरन करै ॥ नाम सुशीला ताकी नारी । प्रतिव्रता अति आज्ञाकारी ॥ पति जो कहै सो करै चितलाइ । सूर कयो इक दिन या भाइ ॥ ॥ विलावल ॥ कहि न सकति सकुचति इक बात। कितीकार द्वारका नगरी काहे न द्विज यदुपति
लौं जात ॥ जाके सखा श्यामसुंदरसे श्रीपति सकल सुखनके दात । उनके अछत आपने आलसं काहे कंत रहत कृशगात ॥ कहियत परम उदार कृपानिधि अंतर्यामी त्रिभुवन तात । द्रवत आपु देत दासनको रीझत हैं तुलसीके पात ॥ छोडी सकुच वांधि पट तंदुल सूरज संग चलो उठि प्रात । लोचन सफल करौ प्रभु अपने हरि मुख कमल देखि विलसाता ॥५९॥॥ रागनट ॥ श्रीकंत सिधारो मधुसूदनपै सुनियतहै वै मीत तुम्हारे । वाल सखाकी विपति विहंडन संकट हरन मुरारे ॥ और जु अति आदर सुन्यो हम निज जन प्रीति विचारे । यद्यपि तुम संतोप भजतही दरश निकट सुखभारे ॥ सूरदास प्रभु मिले सुदामे सब
भांति सुख दै जुनारे ॥६०॥ विलावल ॥ दूरिहते देखे बलवीर । अपने बाल सखा सुदामा मलिन वसन अरु छीन शरीर ॥ पौठे हुते प्रयंक परम रुचि रुक्मिणि चमर डोलावत तीर । उठि अकुलाइ अगमने लीने मिलत नैनभरि आये नीर । तेहि आसन वैठार श्याम घन पूंछी कुशल करौं
मन धीर । ल्यायही सुदेहु किन हमको अव कहा राखि दुरावत चीरोदरशन परसि दृष्टि संभापन रही नउर अंतर कछु पीर । सूर सुमति तंदुल चवातही कर पकरयो कमला भइ भीर ॥६१॥ धनाश्री ॥यदुपति देखि सुदामा आये । विह्वल विकल छीन दारिदवश करि प्रलाप रुक्मिणि समुझाये ॥ दृष्टि परे ते दिये संभाषण भुजा पसारि अंक ले आये । तंदुल देखि बहुत दुख उपज्यो मांगु सुदामा जो मन भायोभोजन करत गयो कर रुक्मिणि सोइ देहु जो मन न डुलावै ॥
सूरदास प्रभु जब निधि दाता जापर कृपा सोइ जन पावै ॥६२॥ विलावला ॥ ऐसी प्रीतिकी बलिजाउँ । सिंहासन तजि चले मिलनको सुनत सुदामा नाउँ । गुरुवांधव अरु विप्र जानिकै चरणन हाथ पसारे । अंकमाल दै कुशल बूझिकै अधासन बैठारे ॥ अर्धेगी वूझत मोहनको कैसे हितू तुम्हारे ॥ दुर्वलदान क्षीन देखतिहौं पाँउ कहांते धारे ॥ संदीपनके हम औ सुदामा पढे येक
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दशमस्कन्ध१०-उतरार्ध