की सुध भुलाई । अस्त्र विद्या समर बहुरि लाग्यो करन कबहुँ लघु कबहुँ दीरघ सो होई । गुप्त कबहूँ । कबहुँ प्रगट तेहि देखिकै धरती रहहि कबहुँ आकास सोई ॥आग्नि कबहुँक वरखि वारि वर्षा करै प्रद्युमन सकल माया निवारी । शाल्व परधान उदमान मारी गदा प्रद्युमन मुरछित भये सुधि विसारी ॥ धर्मपति सारथी गयो एकांतलै उहां जव चेत कै सुधि संभारी । खीझ कह्यो तिसे क्यों इहाँ ल्यायो मुझे मम पिता मातको लगै गारी। कहां कहि हैं मुझे राम भगवान सुनि नारि मम सुनत
अति दुखित होई । मरे रण सुयश त्रैलोक सुख पाइये मंदमति तैं दोऊ बात खोई । धर्मपति कह्यो कार विनय मम सोक नहिं सारथी धर्म मोहि गुरू सिखायो मूच्छि त सुभटहो नहीं राखि ये खेतमें जानि यह बात मैं इहां ल्यायो । प्रद्युमन कह्यो जो भई सो भई अव वात नाहिं जिन्ह किसी सो सुनैये । ताहिंदै शपथ करि आचमन यों कह्योचलो रणभूमि अब वेगि जैये । आइ रणभूमिमें सवन धीरज दियो शाल्व रथ तुरंग चारो संहारे । छत्र ध्वज तोरि मारयोवहार सारथी देखि यह दूर कियो सुभट साहिस्तिनापुर गये हते हरि पांडु गृह तहां ते चले यह बात जानी । शाल्वउत्पात कियो द्वारका मांह बहु हांकि रथ कह्यो सारंगपानी ॥ सारथी पाय रुख ये सटकार हय द्वारकापुरी जब निकट आई । शाल्वके भटन लखि कटक भगवानको आपने नृपतिसों कहो जाई ॥ सुनि सो भगवानके आइ सन्मुख भयो सारथी दौरि वर्ली चलाई । ताहि आवत निरखि श्याम निज सांगको काटिकीर शाल्वकी सुधि भुलाई ॥ बहुरि तिन कोपि निज वाण संधानकार धनुष भगवानको काटि डारयो । टूटते धनुषके शब्द आकाश गयो शाल्व निज जिय समुझि पुनि उचारयो । रुक्मिणीमांगि शिशुपालकी तुम हरी बहुरि तेहि राजसूमेंसंहारयो । जाइहौ अब कहां शिशु दाँव लेही इहां छांडितीजार आपा संभारयो । कह्यो भगवान सुनु शाल्व जे शूरनरते नहीं करत निज मुख बड़ाई । जंगमे शूर तिनको नहीं जानिये भाषि यह गदा ताको चलाई ॥
गदाके लगतही गयो सो गुप्तहोइ धारि धावन रूप यह सुनायो । कह्यो वसुदेव जगदीश सुनु अस्त्रजे तुअ अछत शाल मोहिं वांधि ल्यायो । बहुरि कार कपट वसुदेव तहां
प्रगट कियो कह्यो तिन नाथ मैं दुखित भारी । शाल करवारले श्यामक देखते डारिदियो ताको शीशउतारी ॥ कह्यो भगवान करि कपट इन यह कियो तासु माया
तुरत हरि निवारीीभागि निज पुर चल्यो श्याम पहिलेहि पहुँचि पुनि गदा बैंचिता शीश मारी । शाल्व कियो युद्ध बहु वेरली गदा की बहार हरि सांग ताको चलाई । लगत ताके गए प्राण वाके निकसि सुरन आकास दुदुाभ बजाई । शीश ताको वहुरि काटि करवालसों नगर सब समुद्र मों डारि दीन्हों । सूर प्रभु रहे ताठौर दिन और कछु मारि दंतवक्र पुर गवन कीन्हों५६॥ अध्याय ॥७८॥ दंतवक्रपरमगति ॥ मारू ॥ हरि निकट सुभट दंतवक्रआयो । कह्यो शिशुपाल तुम राज समें हत्यो धनि सो यह हेत सुनि दरशपायो । भृत्य तुम हने संशय नहीं कछु हमैं दोउ विधिआइ प्रभु हित हमारी । जीवै तो राज सुखभोग पावै जगत मुये निर्वाण नीरस तुम्हारी ।बहुरि लै गदा प्रहार कियो श्यामपर लगे ज्यों लकुट अवुज़ प्रभारी। हरि गदा लगत गये प्राण ताके निकसि बहुरि । हरि निजवदन मांह धारी ॥ अनुज ताको बड़ो रथ लग्यो फिरन यों चक्रसों शीश ताको प्रहारयो । सूर प्रभु युद्ध भयो मुनि जन हरषिये सुर पुहुपवरषिजजै उचारयो ॥५७॥ अध्याय ॥ ७९ ॥ वल्वल वध, रामतीर्थगमन ।। मारू ॥ श्याम बलरामको सदा गाऊं । यही मम ज्ञान यह ध्यान सुमिरन यही ।
इहै स्नान फल इहै पाऊं ॥ श्याम दंतवक अरु शाल्वको जीत करि करत आनंद निज पुरी
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सूरसागर।