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सूरसागर।


भरि अपने कर कनक कचोरा पीवति प्रियहि चुखाए ॥ हँसत रिसात बुलावत वरजत तरसत भौंह चढाए । उदित सुदित उठि चलत डगमगत अनुज सुरति जिय आये ॥ इंद्र धनुष भुव चाप अधिक छवि वर वनितनके भाये । सर्वस राीझ देत अपने रस सूरझ्याम गुणगाय ॥३८॥ ।सारंग ॥ वारुनी बलराम पियारी। गौतम सुता भगीरथ वीवर सबहिनते सुंदरि सुकुमारी ॥ ग्रीवा पाहुं गला रन गाजत सुखसजनी सतिभाय सवारी ॥ संकर्षणके सदा सुहागिनि आति अनुराग भाग बहुभारी वसुधा घर जु वाम गिरिराजत भाजति सकल लोक सुखकारी प्रथम समागम आनंद आगम दूलह वर दुलहिनी दुलारी ॥ रतिरस रीति प्रीति परगटकार राम काम पूरणप्रति पारी । सूर सुभाग उदित गोपिनके हरिजू रति भेटे हलधारी ॥३९॥ कालिंदी सुन कयो हमारो । बोली वेगि चलहि वन विहरत न्हाहिं शरीर भयो श्रम भारी ॥ अतिही सतरहोइ जिनि सरिता छोड़ि गर्व या गुणकोगारो । आपनि सौंह कृष्णकी कानी राखतहौं यश मान तुम्हारो ॥ इतहु महातम मोहिं देखावत भवरतरंग प्रवाह पसारो । इन खुनसन गोपाल दोहाई हल करि लैचि करों नदि नारो॥ शिव विरंचि सनकादि सकल मुनि बोलवचनको उधो टारो । सूर सुभद्रः श्यामके मैयहि निपट नदी जानत मतवारो ॥४०॥ यमुना आइगई वलदेव । जो तुम कोही सौंह करीही संतत सादर सेव ॥ सुर नर मुनि जन गन गंधर्व ए सव बचननके देव । सूर भनो यह मानु करतही अवलंबनकी टेव ॥४१॥ कालिंदीहै हरिकी प्यारी । जैसे मोपै श्याम करतहैं तैसी तुम करहु कृपानिनारी ॥ यमुना यशकी राशि चहूं युग यम जेठी जगकी महतारी।सूर कछू जिय जिनि दुखपायो कहा करौं यह टेव तिहारी ॥४२॥ रामकली श्री यमुनाजी तिहारो दरश मोहिं भावै । वंशीवटके निकट वसतहौ लहरनिकी छवि आवै ॥ दुखह रनी सुखदेनी श्रीयमुना प्रातहिं जो यशगावामदनमोहनजूकी अधिक पियारी पटरानीजू कहावै ॥ वृंदावनमें रास विलास मुरली मधुरवजावै।सूरदास दंपति छवि निरखत विमल विमलयशगाव ४३॥ अध्याय ॥ ६६ ॥ पुंडरीकउद्धार ॥ विलावल ॥ हरि हरि हरि सुमिरहु सब कोय । हरिके शत्रु मित्र नहि दोयाज्यों सुमिरै त्योंहींगतिहोइ । हरि हरि हरि सुमिरहु सबकोइ ॥ पुंडरीक काशीको राइ । हरिको सुमिरै वैर सुभाइ ॥ अहनिाशरहै एहिलवलाई । क्यों कर जीतौं यादवराई ॥ द्वारावती तिन दूत पठायो । ताको ऐसे कहि समुझायो । चारि भुजा मम आयुधधारा । वासुदेव मैंही निरधारा ॥ योहींकह्यो यदुपतिसों जाई । कपट तजौं की करो लराई ॥ दूतआई हरिसों सब कह्यो। हरिजी तेहि यह उत्तर दयो।जोतकहीं सो हम सब जानी पुंडरीककी आयु सिरानीकहो जाइ करै युद्ध विचार । सांच झूठ होइहै निरुआर ॥ दूत आइनिजनृपहिं सुनायो । तब उन मनमें युद्ध ठहरायो ॥ जहां तहांते सबन बुलाइ । तब लगि यदुपति पहुँचे आइ ॥ पुंडरीक सुनि सन्मुख आयो । पांच क्षोहनी दल सँग ल्यायोसिना देखि अस्त्र सँभारी ।यदुपतिके लोगन पर डारी ॥ हरि कह्यो तू अजहूं संभारी सांच झूठ जिय देख विचारी ॥ ताकी मृत्यु आइ निअरानी । जो हरि कही सोमन नहि आनी ॥ यदुपति तव निज चक्र संभारयो। ताकी सैना ऊपर डारयो।ऐसे हैं त्रिभुवनपति राई ।। जाकी महिमा देवन गाईकोऊ भजो काहू परकारा। सूरदास सो उतरै पारा ॥४४॥ अध्याय ॥ ६७ ॥ दिविदव सुतीक्ष्ण वध ॥ मारू ॥ द्विविद करि क्रोध हरि पुरी आयो। नृप सुदक्षिण जरयो जरी बारा णसी धाइ धावन जबहिं यह सुनायो ॥ द्वारका माँह उत्पात बहुभांति करि बहुरि रेवत अचल गयो धाई । तहाँहूँ देखि बलरामकी सभाको करन लागो निडर बै ढिगई ॥ लख्यो वलराम ।