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सूरसागर।


पोंछि निकट बैठारी । हँसी जानि बोली तब प्यारी ॥ कहां तुम त्रिभुवनपति गोपालाकहाँ बापुरो, नर शिशुपाल ॥ कहां चंदेरी कहां द्वारावती । जाके सरबर नहीं अमरावती । तुम अमर वह जनमें मरौमूरख उन तुम सरवर करै । तुमसन और नहीं यदुराई । यहीजानि मैं शरणनआई ॥ इह सुनि हरि रुक्मिणिसों कयो । ज्यों तुम मोको चितपर चढयो । त्योंही हम चिंत चाहत तुमको। नहि अंतर कछु हमसों तुमसोयदुपतिको यह सहज सुभाउजो कोउ भनै भजहितेहिभाउजो इह लीला हितकार गावासूरसो प्रेम भक्तिको पावै ॥३२॥ अध्याय ॥६९॥ प्रद्युम्न विवाह रुक्मकलिंग राजावध ॥ रागमारू श्याम बलरामको सदा गाऊं । यही मम थज्ञ जप इहै तप नेम व्रत यह ममःप्रेम फल यही पाऊं । श्याम बलराम प्रद्युम्नके व्याह हित रुक्मके देश जवहीं सिधायोकलिंगको राउ अरु रुक्म बलभद्र सों कपट कार सारि पासाखिलाये । दांव वलरामको देखि उन छल कियो रुक्म जीत्यो कहन लगे सारे । देववाणी भई जीतभई रामकी ताउपै मूढ़ नाही सँभारे ॥ कलिंगको राउ करि हँसी लाग्यो करनबन वसन हार कहा खेल जानो । सभाके लोगहू लगे हाँसी करन राम तव हृदयमें क्रोध आन्यो ॥ रुक्म ओ कलिंगको राउ मारयो प्रथम बहुरि तिनके बहुत सुभट मारे । सूर प्रभु राम वलराम रणजीत भये प्रद्युम्न व्याहि निजपुर सिधारे ॥३३॥ अध्याय ॥६२॥ ऊषा अनिरुद्ध विवाहवर्णन ॥ रागमारू ॥ कुँवर तन श्याम मानो कामहै दूसरो सपनेमें दोख उषा लोभाई चित्ररेखा सकल जगतके नृपनकी छिनिकमें मुरति तव लिखि देखाई ॥ निरखि यदुवंशको रहस मनमें भयो देखि अनिरुद्धसों युद्ध माड्यो । सूर प्रभु ठटी ज्यों भयो चाहै सोत्यों फांसि करि कुँअर अनिरुद्ध बांध्यो ॥३४॥ अनिरुद्दव्याह ॥ अध्याय ॥ ६३ ॥ मारू ॥ श्याम बलराम यह सुनत धाये । आइ नारद कह्यो द्वारका नाथसो वाणासुर चोर अनिरुद्ध बँधाय ॥ छोहनी दुइदशहुतो हरि सँग कटक जातही नगर ताको लुटायो । देखि यह असुर सन्मुख भयो श्यामके रुद्र निज सै न लै तहां आयो ॥ रुद्र भगवान अरु वान सांवुक भिरे राम कुंभाड मांडी लराई । सैनपति कोपि प्रद्युम्नसों भिरयो सांतुकुंकर दोऊ भिरन धाई ॥ तेज़ भगवानको पायनलावन लगे असुर दल चल्यो सवही पराई। रुद्र तव कोपि करि आग्नि वरपाकरी श्याम जल वपि डारयो वुझाई ॥ पुनि महादेव जो वाण संधान लियोआप भगवान ताको प्रहारयोदेखि यह युद्ध सुर असुर चकृतभ ये लख्यो तववाण जो रुद्र धारयो ॥ वाण तब आइ भगवान सन्मुख भयो वाण वर्षा करन लागो भारी ।येकहू वाण आयो नहरिके निकट तव गह्यो धनुष सारंगधारी ॥ एकही बाण संधान रथके ॥ तुरंग ध्वजा अरु धनुष सब काटि डारीशंखको शब्दकार लियो असुर तेज हरि ध्वनि-रही फैल नभ पृथ्वीसारी ॥ देखि यह असुरको मातुधाई नगन तुरत भगवानके निकट आई । नगन त्रियं वे जगत नाहिन कहो जानि इह हार रहे मुख फिराई ॥ असुर यह घात तकि गयो रणते सटकि विपतिज्वर दियो तव शिवपठाई । सप्तज्वर युद्धकार कियो विह्वल तिसे तिन तबहिं आइ विनती सुनाई ॥ प्राणदाता तुहीं स्थल छूछिमतुही सर्वआत्मा तुही धर्मपालकाज्ञान तुही कर्म तुही विश्वकर्मा तुही अनंत शक्ति प्रभु असुर शालक । संपत्ति अरु विपतिको मिलि चले प्रभुतहां, जहां नहिं होइ सुमिरन तिहारों । करत दंडवत मैं तुम्हें करुणाकरन कृपाकरि ओर मेरे निहारो सुनत यह वचन हरि कह्यो अब मौन करि कृपाकरि तोहि परवीर धारी संपति अरु विपतिको भय नहोइहै तिसे सुनै जो यह कथा चित्तधारी । विपति ज्वर कह्यो शिरनाइ हरिको तुरत वाणासुर बहुरि रणभूमि आयो । चक्रपरिहार हरि कियो ताको निरखि रुद्र