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देशमस्कन्ध-उत्तरार्ध. (६७७) श देह दहीरी । अपनीसों सुनि सतभामाता मैं मन बच यह सुधि न लहीरी॥सुनो निपट अकेलो। मंदिर चंद्रकला जनु राहु गहीरी । तुववियोगकी पीर कठिन अति सुकहि सूर क्यों जाति सहीरी ॥३०॥ आसावरी ॥ रटत कृष्ण गोविंद हरि हरि मुरारी । भक्त भयहरन असुर अंतकारी ॥ पटदश सहस कन्या असुर वैदि में नींद अरु भूख अहनिशि विसारी । प्रीति तिनकी सुमिरि भए अनुकूल हरि सत्यमामा हृदय यह उपाई ॥ कल्पतरु देखिवेकी भई साध मोहिं कृपाकार नाथ ल्यावहु देखाई । सत्यभामा सहित बैठि हरि गरुडपर भौमासुर नगर गए तुरत धाई। एकही वान पाषानको कोट सब हुतो चहुँओर सो दियो ढहाईगिरुड चहुँपास के नाग लियो निगल जल वरपिके अग्नेि ज्वाला वुझाई ॥ करे हरि शंखध्वनि जग्यो तव असुर सुनि कोपकरि भवन ते निकस धायो । देखिकै गरुडको लगो ता हृदय दव कठिन त्रिशूल तव गहि चलायो । असुर शिर टेक तब कहो निज नृपतिसो नाहं तिहुँ भुवन कोड सम तुम्हारे । युद्धको करत छाजत नहीं है तुम्हें सुनो महाराज इह चाहत हमारे ॥ कियो तव युद्ध वन क्रोध होइ श्याम सो हरि कह्यो गरुड याहति प्रचारी । गरुड सुनि धाइ गयो जाइ ताको तुरत नैनहू शीश डारे प्रहारीतासु पुत्रन बहुरि युद्ध हरिसों कियोमारते सोऊ कादर डेराने । असुर कटि कटि परे कोऊ उठि उठि लरे कोउ डर डर विदिश दिश पराने ॥ तव असुर अग्नि जलवान डारन लग्यो तासु माया सकल हरि निवारीअसुरके तनहिको लग्यो कलपन तुरंग गज उडि चले लागीवयारी।।असुर गजरूढ होइ गदा मारे फटकि श्याम अंग लागि सो गिरें ऐसे । बालके हाथते कमल अमल नाल युत लागि गजराज तन गिरत जैसे ॥ आप जगदीश सब शीश ता असुरकी मार त्रिशूल सोइ काट डारे । छाँडिसो प्राण निर्वाणपदको गयो सुर पुहुप वर्षि जै जै उचारे ॥ पृथ्वीगहि पाइ माला कुंडल छत्र लै जोरि कर बहुरि विनती सुनाई । नाथ मम पुत्रको दीजिये परमगति हरि कह्यो पुत्रको मुक्ति पाई ॥ बहुरि गये तहां कन्याहुती सब जहां निरखि हरि रूप सो सव लुभाई। चरणही लागि वडभाग रखि आपने कृपाकरि हरि सो निजपुर पठाई ॥ बहुरि गयो इंद्रपुर इंद्र रह्यो पाँइपर कल्पतरु वृक्ष तासों मँगाई।तृदशपति मोति अरु रत्न कुंडल दई वृक्ष लै आप निज पुरीआई।बहुरि बहु रूप धरि गए हरि सवन घर व्याह करि सवनकी आशपूरी सवनके भौन हरि रहहिं सब रैन दिन सवनसों नेक नहि होत दूरी ।। सबनको पुत्र दशदश कुँअरि एक एक दै सक लको धर्म गृह किए सिखाई । कोटि ब्रह्मांड नायक सो वसुदेव सुत सूर सोई नँदनंदन कहाई ।। ॥३१॥ अध्याय ॥ ६० ॥ रुक्मिणीभक्ति परीक्षा ।। राग बिलावल ॥ भक्तवत्सल हरिभक्त उधारन । भक्त परीक्षाके हित कारन ॥ रुक्मिणिसों वोले सति भाई । हम जानी तुमरी चतुराई ॥ राउ चंदेरीको शिशुपाल । जाको सेवत सब भूपाल । तासों तेरी भई सगाई । तै पाती क्यों हमहि पठाई जाति पाँति उन सम हम नाहीं । हम निर्गुण सब गुण उनपाहीं ।। उन सम नहिं हमरी ठकुराई। पुरुप भले ते नारि भलाई ॥ निकंचन जिनमें ममवासा । नारि संगमैं रहौं उदासा। जो कहै मोहिं काहे तुम्ह ल्याये । ताको उत्तर द्यों समुझायो।कुंडिनपुर बहु भूपति आये । तिनके हृदय गर्वसों छाये ॥ वरजोरी मैं तोहिं हरिल्यायो । उनके मनके गर्व नशायो । इह सुनि रुक्मिणि भई वेहाल । जानि परयो नहिं हरिको ख्याला ले उसांस नैन जलढारेरामुखते वचन न कछुक उचारे।। ताकी दशा देखि हरिजानी । इन्ह मम भक्ति भली पहिचानी ॥ हॉसि बोले तव शारंगपानी। प्राणप्रिया तुम क्यों विलखानी ।। मैं हांसीकरि बात चलाई। तुम्हरे मन इह सांची आई ॥ आंसू ॥ -