कीजिए । बलिजाउँ यादवपति तुम्हारी गारिका कहि दीजिए ॥ तेरी मैया सब जग खोयो । सोको जो बल न विगोयो ॥ छंद ॥ सोको जो नबल कार वियोगो फिरत निशि वासर वनी । शिरश्वेत पट कटि नील लहँगा लाल चोली विनतनी ॥ कछु मंद मुख मुसुकाइ सुर नर नाग भुज भीतर लए । बलिजा यादवपति तुम्हारी माया कुल विनु तुम किए । कछु कहि न जाइ गति ताकी । नित रहत मदनमद छाकी ॥ नित रहत मन्मथ मदहि छाकी निलज कुच झांपत नहीं । तब देखि देखि जु छयल मौहित विकल धावत तहीं ॥ इक परत उठत अनेक अरुझत मोह अति मनसा मही । यहि भांति कथा अनेक ताकी कहत हू नपरै कही ॥ वहतौ नित नवतन रतिजोरै । चित चितवनिही मँहहैचोरै ॥ छंद ॥ अति चतुर चितवनि चित चुरावति चलत धर धीर न धरै। फिरि चमक चोप लगाइ चंचल तनहिं तव अंतर करै। कछु भौंहकी छवि निराखि नैननि सुको जन व्रतते टरै । इहि भांति चतुर सुजान समधिनि सकति रति सवसों करे ॥ इनहीभूलिरहे सब भोगीविशकीन ब्राह्मणजे योगी ॥ छत्रपति केतेकहौं और अग जग जीव जल थल गनत सुनत न सुधि लहौं । ते परमआतुर काम कातुर निरखि नित कौतुक नए । यहि भांति समधिन संग निशिदिन फिरत भ्रम भ्रले भए । अब तुमही परम सयाने। तुम ठाकुर सब जगजाने ॥ छंद ॥ ठाकुर सवनके कृपानिधि हरि सुयश सब जग गाइए । या लोकके उपहास आपुन ताहि वरजि मिटाइए ॥ कहि एकही भलं पांच माधो और अनत न सूझिए । सुनि सूरश्याम सुजान इहिकुल अब न ऐसी कीजिए ॥२॥ अध्याय ॥ ५५ ॥ प्रद्युम्नजन्म ॥ विलावल ॥ प्रद्युम्न जन्म शुभपरी होऊ । काम अवतार लीन्हो विदित बात यह तासु सम तूल नहि रूप दोऊ ॥ पृथ्वीपर असुर शंवरभयो अति प्रबल तिन्ह उदधि मांह तेहि डारि दीन्हों । मक्षलियो भक्ष सो भक्ष गह्यो असुर तब कौनसों लेइकै भेट कीन्हो ॥ मक्षके उदरते वाल परकटभयो असुर मायावती हाथ दीन्हो । कह्यो तेहि काम पर माण नारद वचन सुमिरि अति हर्पसों ताहि लीन्हो ॥ भयो जव तरुण तव नारि तासों कहो रुक्मिणी मात हरि तात तेरो । नाम ममरति विदित वात जानत जगत कामतुअ नाम पुनि पुरुप मेरो ॥ असुरको मार परिवारको देहि सुख देउँ विद्या तोको मैं बताई । विना विद्या असुर जीत सकही नहीं भेदकी वात सव कहि सुनाई । प्रद्युमन सकल विद्या समुझि नारिसों असुर सो युद्ध मांग्यो प्रचारी । काटि करवारि लियो मारि ताको तुरत सुरन आकास जयध्वनि उचारी ॥ बहुरि आकास मधि जाइ द्वारावती मात मनमोद अतिही बढायो । भयो यदुवंश अति रहसमानो जन्म भयो सूर जन मंगलाचार गायो ॥२५॥अध्याय ॥ ५६ ॥ मणिहेतु सत्यभामा नाम्ववती विवाह ॥ सारंग ॥ हरिदर्शन सत्राजित आयो । लोगन जान्यो आवत आदित हरिसों जाइ सुनायो । हरि कह्यो रवि न होइ सत्राजित मणि है ताके पास । रवि प्रसन्न होइ दीन्ही ताको यह ताको परकाश ॥ आइ गयो सोऊ तेहि अवसर तेहि हरि कह्यो सुनाइ । यह मणि अति अनुपम है सो सुनि रहि न सक्यो ललचाइ ॥ येक दिन ताते अनुज सो मांगी ले गयो अखेटक काजा । ताको मारि-सिंह मणि लै गयो सिंह हत्यो रिछराजा ॥ ऋच्छराज वह मणि तासों
लैजाम्बवतीको दीन्ही प्रसमन को विलंब भयो तब सत्राजित सुध लीन्हीजहां तहांकोलोग पठा यो काहू खोज न पायो। सूरदास सत्राजित भ्रमसों चोरी हरिहि लगायो ॥२६॥ अध्याय ॥५७॥ शत ॥ धन्वा वध अफूर संवाद । सोरठ ॥ शुकदेव कहत सुनहु हो राजा । ज्ञानी लोभ करत नहिं कबहुं लोभ ।
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दशमस्कन्ध-१०