यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(4६८) सूरसागर। . सोङहै उन कीनी । सूर उसाँस छाँडि हाहा ब्रज जल आँखिया भरिलीनी॥८७॥ मारू ॥ सुन उधो मोहिं नैक न विसरत वै ब्रजवासी लोग । तुम उनको कछु भली न कीनी निशि दिन दियो वियोग ॥ यदपि वसुदेव देवकी मथुरा सकल राज सुखभोग। तदपि मनहिं वसत वसविट ब्रज यमुना संयोग ॥ वै उत रहत प्रेम.. अवलंबन इतते पठयोः योग. । सूर उसास छांडि भार लोचन, बढ्यो विरहज्वर सोग ॥ ८८॥ ऊधो मोहि ब्रज विसरत नाहीं। वृंदावन गोकुल तन आवत सघन तृणनकी छाहीं ॥ प्रातः समयमाता यशुमति अरु नंद देखि सुखपावत । माखन रोटी दह्यो सजायो अतिहित साथ खवावत ॥ गोपी-ग्वाल बाल सँग खेलत सबदिन हँसत सिरात । सूरदास धनि धनि ब्रजवासी जिनसों हँसत ब्रजनाथ ॥३४८९॥ इति श्रीमूरसागरदशमस्कन्ध पूर्वार्धसमाप्त ॥ ...