अरध नैनन देत ॥ चमर अंचल कुच कलस मनो पाय पाणि चढाइ । प्रगट लीला देखि उनकी । कर्म उठती गाइ ॥ देह गेह सनेह अर्पण कमल लोचन ध्यान । सूर उनको भजन देखत फीको । लागत ज्ञान ॥ ७९ ॥ माधोजू सुनिये ब्रज व्यवहार । मेरो कह्यो पवनको भुसभयो गावत नंद कुमार ॥ एक ग्वालि गोमुतद्वै रेंगति एक लकुट कर लोते । एकग्वालि मंडलीकरि बैठति छाँक वांटिकै देति ॥ एक ग्वालि नटवत बहुलीला एक कर्मगुण गावति । बहुत भाँति करि मैं समु-झाई नैक न उरमें आवति ॥ निशि वासर याही ढंग सब वज दिन दिन नवतनु प्रीति । सूर सकल फीको लागतहै देखत वह रँगरीति ॥८०॥ मलार ॥ वा वूझति यों वहरावति । सुनहु श्यामवै सखी सयानी पावसऋतु राधहि न सुनावति ॥ धन गर्जत मनु कहत कुशलमति कुंजत गुहा सिंह समुझावति । नहिं दामिनि दुम दवा शैलचढि फिरि वयारि उलटी झर धावति ॥ नाहिंन मोर वकत पिक दादुर ग्वालमंडली खगन खिलावत । नहि नभ वृष्टि झरना झर ऊपर बूंद उचटि
आवत ॥ कबहुँक प्रगट पपीहा बोलत कहि कुवेप करतारि वजावत । सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन विन सो विरहिनि इतनो दुख पावत ॥८१॥ नट ॥ नैकहु काहू सोच न कीन्हों । सुन ब्रजनाथ सबनके अवगुण मिलि मिलिहै दुखदीन्हो ॥ ऋतुवसंत अनसमै अधममति पिकसहाउ लै धावत । प्रीतम संग नजानि युवती रुचि बोलेह बोल न आवतासिदा शरदऋतु सकल कलाले सन्मुख रहत जन्हाइ । सो सितपच्छ कुहू सम वीतत कबहुँ नदेत देखाइ ।त्रिविध समीर सुमन सौरभ मिलिमत्त मधुपगुंजार । जोइ जोइ रुचै सु कियो बांधि वल तजि मन सकुच विचार ॥रतिपति अतिअनीति कीवे कोटिधूमध्वजमानोलकर धनुष चितै तुम्हरोमुख अब बोले तव जानौ ॥ इहि विधिसबन वीन पायोब्रज काढत बैर दुरासी। सूरदास प्रभु बेगि मिलहु अब पिसुन करत सब हाँसी ॥८२॥ सारंग ॥ सवते परम मनोहर गोपी। नँदनंदनके नेह मेह जिनि लोक लीक लोपी ॥ वरि कुविजाके रंगहि राचे तदपि तजी सोपी । तदपि न तजै भने निशि वासर नैकहून कोपी ॥ ज्ञानकथा की मथि मन देखो ऊधो बहुधौपी । टेरति घरी छिन नैक नअँखिया श्यामरूप रोपी ॥ जे तिहि तिहि हरिके
अवगुणकी ते सबई तोपी । सूरदास प्रभु प्रेम हेम ज्यों अधिक ओप ओपी ॥८३॥ सारंग ॥ मोमन उनईको भयो। परयो प्रभु उनके प्रेमको समै तुमहूं विसरि गयो । तुमसों सपत करि गयो माधव वेगि कोहो आवन । तिनाह दोखि वैसोई वै गयो लग्यो उनहि मिलि गावन ॥ समुझि परी पटमास वीतते कहां हुतो हों आयो।सूर अनकही दै गोपिनसो श्रवण मदि उठिधायो ॥
८४॥ रागगंधार ॥ उनमें पांचो दिन जो वसिएनाथ तुम्हारी सों जिय उपजत फेरि अपनो यो कसिए । वह विनोदलीला वह रचना देखेही वनिआवै । मोको कहा बहुरि वैसे सुख वडभागी सो पावै । मनसा वचन कर्मना अबहैं कहत नहीं कछु राखी । सूर काढि डारयो ब्रज ते ज्यों दूध मांझते माखी ॥८५॥ सोरठ ॥ माधोज़ मैं अतिही सचुपायो । अपनोजानि संदेश साजिकरि ब्रजमिलन पठायो ॥ क्षमाकरो तो करों वीनती उनहि देखि जो आयो । सकल निगम सिद्धान्त जन्मकर श्याम उन सहज सुनायो ॥ नहिं श्रुति शेप महेशप्रजापति जो रस गोपिन गायो । कथा गंग लागी मोहिं तेरी उह रस सिंधुउमहायो । तुम्हरी अकथ कथा तुम जानौ हमैं जिन नाथ विसरायो सूरश्याम सुंदरि इह सुनि सुनि नैनन नीर वहायो८६॥ मलार ॥ जोपै प्रभु करुणाके आलै । तो कत कठिन कठोर होत मन मोहिं बहुत दुखशालै ॥ वहो विरदकी लाज दीन पति कार सुदृष्टि देखो । मोसों बात कहत किन सन्मुख कहा अवनि अवलेखो ॥ निगम कहत वशहोत भक्तिते
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दशमस्कन्ध-१०