जित नेत । कहुँ कैकन कहुँ गिरी मुद्रिका कहुँ ताटक कहुँ नेत ॥ मनहु विरह दव जरत विश्व सब राधा रुचिर निकताधुज होइ सूखिरही सूरज प्रभु वधी तुम्हारे हेत ॥५२॥ मलार ॥ नैननि होड वदी वरषासों । राति दिवस वरसत झर लाए दिन दूरी कर खासों ॥ चारि मास वरपे जल खूटे हारि समुझ उनमानी। एतेहू पर धार न खंडित इनकी अकथ कहानी ॥ एते मान चढाइ चढी अति तजी पलककी सीवामैं जानी दिन दिन उन मानो महाप्रलय की नीव ॥ तुमपै होइ सो करहु कृपा निधि ए ब्रजके व्यवहार । अवकी वेर पाछिले नाते सूर लगावहु पार ॥५३॥ गौरी ॥ बजते द्वैऋतु पैनगई । ग्रीषम अरु पावस प्रवीन हरि तुम विनु अधिक भई ॥ उरध उसास समीर नैन घन सव जल योग जुरे । वरपि प्रगट कीन्हे दुख दादुर हुते जु दूरि दुरे ॥ तुम्हरो कठिन वियोग विषम दिन कर सम उदो कहार पद विमुख भए सुनु सूरज को इहि ताप हरै ॥५४॥ कान्हरो ॥ नाहिन कछु सुधिरही हिए । सुनो श्यामवै सखिहि राधिकहि युगवति जतन किए कर कंकन कोकिला उड़ावत विनमुख नामलिए ॥ सैन सूचना नखनि नितं किसलय श्रवणन शबदविए ॥शशिसंका निशि जाल निके मग वसन बनाइ सिए।दिशि दिशि शीत समीरहि रोकत अंचर वोट दिए ।मृगमद मलै परस तनु तलफत जनु विष विषम पिए । जो न इते पर मिलहु सूरं प्रभु तौ जानी विजए ॥५५॥ गौरी ॥ कहालौं कहिए ब्रजकी वात । सुनहु श्याम तुम विनु उन लोगन जैसे दिवस विहात ॥ गोपी गाइ ग्वाल गो सुत वै मलिन वदन कृषगात । परमदीन जनु शिशिरहि महित अंबुज गत विनपात । जाकहुँ आवत देखिदूरते सब पूछति कुशलात । चलन नदेत प्रेम आतुर उर कर चरणन लपटात पिक चातक वन वसन न पावहि वाइस वलिहि नखात ॥ सूरश्याम संदेशनके उर पथिक न उहि मग जात ॥५६॥ मलार ॥ ब्रजकी कही नपरतिहै बात। गिारतनयापति भूषण जैसे विरहजरी दिनरा तै । मलिन वसन हरिहित अंतगति तनु पीरो जनु पाते । गदगदवचन नैन जल पूरित विलख वदन कृषगाते । मुक्तो तात भवनते विछुरै मीन मकर विललाते । सारंगरिपु सुत सुहृदंपति विना दुखपावति बहु भांते ॥ हरिसुरभषन विना विरहाने छीनभईतनुताते । सूरदास गोपिन पर तज्ञा मिलहु पहिलके नाते ॥५७॥ कल्याण ॥ रहात रौनि दिन हरि हरि हरि रट । चितवति इकटक मग चकोर लौं जपते तुम विछुरे वागर नट भरि भरि नैन नीर टारतिहै सजल करति अति कंचु । किके पटामनहुँ विरहकी ज्वरता लगि लियो नेमप्रेम शिव शीशसहसवटाजिसे यवके अनओसकन
प्राणरहत ऐसे अवधिहिके तट । सूरदास प्रभु मिलौ कृपाकरि तेदिन कहे तेउ आए निकट ॥५८॥ सारंग ॥ दिनदश घोष चलहु गोपाल । गाइनके अवसर मिटावहु लेहु आपने ग्वाल ॥ नाचत नहीं मोर तादिनते बोले नवर्षाकाल । मृग दुवरे तुम्हारे दरश विनु सुनत न वेणु रसाल ॥ वृंदावन हरयो होत नभावत देखो श्याम तमाल । सूरदास मइया अनाथहै घरचलिए नँदलाल ॥५९॥ सोरठ ॥ उधो भलो ज्ञान समुझायो । तुमसों अब कहा कहतहैं मैं कहि कहा पठायो । कहवावतही बडे चतुरपै वहां नकछु कहिआयो । सूरदास ब्रजवासिनको हित हरि हिय मांझ दुरायो ॥६०॥ सारंग ॥ मैं समुझाई अति अपनोसो । तदपि उन्हें परतीति न उपजी सबै लखो
सपनोसो ॥ कह्यो तुम्हारो सबै कहीमै और कछू अपनी । श्रवणन वचन सुनतहैं उनके जो घटमाह अकनी ॥ कोइ कहै बात बनाइ पचासक उनकी बात जो एक । धन्य धन्य जो नारी ब्रजकी विन दरशन इहि टेक ॥ देखत उमग्यो प्रेम यहांके धरी रही सब रोयो । सुरश्याम हौं रहौं ठगोसो ज्यों मृगचाको भोयो ॥६१॥ वातें सुनहु तौ श्याम सुनाऊं । वै उमगी जलनिधि तरंग ज्यों तामें थाह
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सूरसागर।