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(९६२) . सूरसागर। .. ........ .: बूझो निगम बोलाइक करें भेद समुझाइ । आदि अंत जाको नहीं कौन पिता को माइ। उधो घर लागे अरु घूर कहो मन कहा धावै । अपनो घर परिहरै कहोको घूर बतावै॥ मूरख यादव जातिहैं हमहिं सिखावहिं योग । हमसों भूली कहतहै हम भूली किधौं लोग । प्रेम प्रेमते. होइ प्रेमते परहै जीए। प्रेम बंधो संसार प्रेम परमारथ लहिए।एकै निश्चय प्रेमको जीवनमुक्ति रसाल ।सांची निश्चय प्रेमको जिहिरे मिलैं गोपाल ॥ उधो कहि सतभाव न्याय तुम्हारे मुखसांचे । योगप्रेम रस कथा कहो कंचनकी कांचे ॥ जाके परहै हूजिए: गहिए सोई नेम । मधुप हमारी सों, कहोः योग भलो किधौं प्रेम ॥ सुनि गोपीके वयन नेम ऊधोके भूले । गावत गुण गोपाल फिरत कुंजनमें फूले ॥ खन गोपी कै पाँइ परै धन्य सोइहै नेम । धाइ धाइ तुम भेटई उधो छाके प्रेम ॥ धनि गोपी धनि ग्वाल धन्य सुरभी वनचारी । धनि इहां पावन भूमि जहां गोविंद अभिसारी ॥ उपदेश. न आये हुते मोहिं भयो उपदेश । ऊधो यदुपतिपै चले धरे गोपकी भेष ॥ भूले यदुपति नाव कहो गोपाल गोसाई । एक वार ब्रजजाहु देहु गोपिन देखराईवृंदावन. सुख छांडिक कहां वसेहो आइ॥ गोवर्धन प्रभु जानिके ऊधो पकरे पाँइ । उधो ब्रजको प्रेम नेम वरणो सब आई। उमग्यो नैनन नीर बात कछु कह्यो. न जाई ॥ सूरश्याम भूलत भए रहे नैन. जल छाइ । पोंछि पीतपट सों को भले आए योग सिखाइ३९॥इति भवँरगीत॥अध्याय॥४८॥अथ उद्ध्व मथुरा आए श्रीकृष्णप्रति वदति ॥ सारंग ॥ ऊधो जब ब्रज पहुँचे जाइ । तबकी कथा कृपाकार कहिए हम सुनिहैं मन. लाइ ॥ बाबानंद. यशोदा मइया मिले वनहि कीनाइ । कबहूं सुरति करत माइनकी किधौं रहे. विसराइगोपसखा दधिखात भात वन अरु चाखते चखाइ। गऊ बच्छ मुरली सुनि उमड़त अबहि रहत केहि भाइ ॥ गोपिन गृह.व्योहार विसारे मुख सन्मुख सुखपाइ। पलकवोट निमि पर अन खाती यह दुख कहा समाइ॥ एक सखी उनमें जो राधा जब हो इहते. गयो । तब ब्रजराज सहित .... सब गोपिन आगे झै जो लयो ॥ उतरे जाइ नंदबाबाके संबही शोधलह्यो । मेरी सो सांची कहु | ऊधो मैया कछू करो ॥ वारंवार कुशल पूंछी मोहिं. लै लै तुम्हरो नाम । ज्यों, जल तृषा बढी चातक चित्त कृष्ण कृष्ण बलराम ॥ सुंदर परम विचित्र मनोहर वह मुरली देइ घाली। लई, उठाइ उरलाइ सूर प्रभु प्रीति आनि उरशाली ॥ ४० ॥ सुनिये ब्रजकी दशाः गोसाई। रथकी ध्वजा पीतपट भूषण देखतही उठि धाई ॥ जो तुम कही. योगकी बाते ते मैं सबै सुनाई । श्रवण नदि गुण कर्म तुम्हारे प्रेम मगन मनगाई ॥ औरो कछू संदेश सखी इक. कहत दूरि लौं आई । हुतो कछू हमहू सों नातो निपट कहा विसराई ॥ सूरदास प्रभु वनविनोद करि जो तुम गऊ चराई। ते गाय ग्वालन हेरी देय हेरति मानों भई पराई॥४३॥ सारंग ॥ब्रजके विरही लोग दुखारे । विन गोपाल ठगेसे ठगदे आति.दुर्वल तनुकारे ।। नंद यशोदा मारग जोवत नित उठि सांझ सवारे । चहुँ दिशि कान्ह कान्ह कार टेरत. अँसुक्न वहत पनारे ॥ गोपीगाई ग्वाल गोसुत सब अतिही दीन विचारे । सूरदास प्रभु विन यो सोभित चंद्र विनाज्यों तारे ॥१२॥ ॥ केदारो ॥ हरिजी सुनो. वचन सुजान । विरह व्याकुल छीन तन मन हीन लोचन प्रान ॥ इहैहैं: संदेश ब्रजको माधो सुनहु निदान । मैं सवै ब्रज दीन देखे ज्यों विना निर्मान ॥ तुम विना.सोभा. नज्यों गृहविना दीप भयान । आसश्वास उसास: घटमें अवध आशापान ॥ जगत जीवन भक्त, पालन जगतनाथ कृपाल । करि जतन कछु सूरके प्रभु जो जीव ब्रजबाल.॥४३॥ जैतश्री.॥ सुनहु -श्याम वै सब ब्रजवनिता विरह तुम्हारे भई वावरी । नाहिंन नाथ और कहि आवत छाडिः !