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(५५८)
सूरसागर।


प्राणत्यागत करै कछु गति आइ ॥ सकल सुरभी यूथ दिनप्रति रुदंति पुर दिश धाइ। जहाँजहां दुहि बन चराई मरति तहां बिललाइ ॥ परमप्यारी शरद राधिका लई गृह दुख छाइ । तजत चक्र नवक्र चखविनु करै कोटि उपाइ ॥ योगपदलै देहु योगिहि हमहिं योग मिलाइ । मधुप विछुरे वारि मीनहि अनत कहा सोहाइ ॥ आजु जेहि विधिः श्याम आवै कहो तेहिविधिजाई । सूरदास विरह ब्रज जन जरत लेहु बुझाइ ॥२०॥ जैतश्री ॥ अति मलीन वृषभानु कुमारी । हरिश्रम जल अंतर तनु भाजे तालालच मधु आवत सारी ॥ अधोमुख रहति उर नाहि चितवति ज्यों गथहारे थकित यूथ अरी । छूटे चिहुर वदन कुम्हिलाने ज्यों नलिनी हिमकरकी मारी ॥ हरि सँदेश सुनि सहज मृतक भई एक विराहनि दूजे अलिजारी । सूरश्याम विन यो वितिहै ब्रजवनिता सब । श्यामदुलारी ॥ २१ ॥ सारंग ॥ ऊधो देखेही ब्रजजातोजाइ कहियो श्याम सों यों विरहके उतपात । नैनन कछू न सूझई अरु श्रवण कछू नसोहात । श्याम विन सर्व ब्रजहि सूनो दुसह सरवन घात । आइवौ तौ आइधौं हरि बहुरि शरीर समात । सूरप्रभु पछिताहुगे तुम अंतह गए गाता ॥२२॥ मलार॥ हरिजीसों कहियो हो जैसे गोकुल आवहिं । दिन दशरहे भली कीनी वहा अब जिनि गहर लगा वहिं ॥ नाहिंन कछू सुहात तुमहिं विनु कानन भवन नभावहिावाल विलख मुख गौन चरति तृण वछ पयं पियन न धावहि ॥ देखत अपनी अखिअन उधो हम कहि कहा जनावहिं । सूरश्याम विन तपत रैनि दिन मिले भलेहि सचुपावहिं ॥२३॥ विहागरो ॥ उघो तुमहि श्यामकी सोहै । मुख देखत कहियो तुम उनसों जित तित लगी मदनकी दौहै । जो मन योग जुगुति आराधै सो मनतो सबको उनपैहै । जैसे वसन तजतहैं पंगन सोगति कान्ह करी हमकोहै ॥ हम वावरी त्यों नचलि जान्यो ज्यों जग चलत आफ्नी गोहै । सूरदास कपटी चित माधो कुविजा मिलि कपटी की खोहै ॥२४॥ केदारो ॥ ऊधो एक मेरी बात । बूझियो हर वाइ हरिस्यों प्रथम कहि कुशलात ॥ तुम जो इह उपदेश पठायो आनि योग मन ज्ञान । सत्यह सब वचन झूठो मानिये मन न्यान और ॥ व्रज कहि दूसरोहू सुन्यो कहा वलवीराजाहि वरजन इहां पठयो करि हमारी पीर॥ आपु जवते गए मथुरा कहत तुमसों लोग । सहजही तादिवसते हम भूलियो भय भोग ॥ प्रगट पति पितु मातं प्रभु । जन प्राणतुम आधीन । ज्योंचकोरहि संग चकोरी चित्तचंदहि लीन ॥ रूप रसन सुगंध परसन रुचि न इंद्रिन आन ॥ होति हौंस न ताहि विषकी कियो जिन मधुपान । द्वैगयो मन आपुही सब सगुन तगुन गणईश । ज्ञानकी अज्ञान ऊधो तृणतोरि दीजै शीश ॥ बहुत कहा कहैहि केशो राइ परम प्रवीन । सूर सुमत न छाडिहै जहां जीवत जल विन मीन ॥२६॥ सारंग ॥ मधुकर कहियो सुचित संदेशो । समै पाइ समुझाइ श्यामसों हम जिय बहुत अंदेशो ॥ एक वार रसरास हमारे मुरली मनजो हरेसो । तव उन वेणु बजाइ बोलाई अव निर्गुण उपदेशो ॥ और बार उनि योग जुगतिको भेद नकहो परेसो । तव पतिव्रत तुम करन कहत अब उखरो ज्ञान गडेसो ॥ और कहालौं हम कहैं ऊधो अबलनको दुख ऐसो । सूरदास इन पर हँसि मरियतु कुविजाके सब कैसों ॥२६॥ पुनः ऊधो वचन ॥ रागनट ॥ अब अति चकित वंत मन मेरोआयो हों निर्गुण उपदेशन भयो सगुनको चेरो ॥ मैं कछु ज्ञान को गीताको तुमहि नपरहो नेरो । अति अज्ञान जानिकै अपनो दूतभयो उनकेरो ॥ निज जन जानि हरि इहां पठायो दीनो बोझ घनेरो । सूर मधुप उठि चले मधुपुरी बोरि योगको वेरो ॥ ॥२७॥ गोपीवचन ॥ केदारो ॥ उधो तिहारे मैं चरणनलागौं वारक यहिब्रज करियो विभावरी । निशि न नींद आवै दिवस नभोजन भावै चितवत मगभई दृष्टि झावरी । एकश्याम विन कछू नभावे