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(१२) - सूरसागर-सारावली। तैसेही भुवभार उतारन हरिहलधर अवतार । कालिंदी आकर्ष कियो हरि मारे दैत्यं अपार ॥ ३२३ ॥ गज अरु ग्राह लडेउ जलभीतर तव हरि सुमिरण कीन्हों। छोडिगरुड सुखधाम सांव रो भक्तनको सुख दीन्हों॥३२४ ॥ जब बहु असुर बढ़े पृथ्वीपर कियो अनर्थ विस्तार । सत्य. सेन प्रगटे विश्वम्भर सत्य कियोहै अपार ।। ३२५ ॥ निज वैकुण्ठ बसाय रमापति कियो रमाको | हेत । विनती सुनि कमलाकी केशव कीन्हों सुख संकेत ॥ ३२६ ॥ ब्रह्मचर्य थापनके कारण || धरो विभू अवतार । जहँ तहँ मुनिवर निज मर्यादा थापी अघट अपार ॥ ३२७॥.अजित रूप शैल धरो हरि जलनिधि मथवे काज । सुर अरु असुर चकित भये देखत किये भक्तके काज ॥ ॥ ३२८ ॥ जब बलिराजा गये, देवपुर लीन्हों स्वर्ग छुडाय । अदिती दुखित भई कश्यप सों. विनती करी सुनाय || ३२९ ॥ तव कश्यप मुनि कहेउ पयोव्रत विधिसों करो बनाय । ताकी ! कोखि जन्म हरि लीन्हों श्रीवामन सुखदाय ॥३३०॥ भादौं श्रवण द्वादशी शुभ दिन धरो विप्रा हरिरूप । शिव विरंचि सनकादिक आये वन्दनको सुख भूप ॥ ३३१ ॥ यज्ञोपवीत विधोक्त कियो विधि सब सुर भिक्षादीन्हीं। वामनरूप चले हरि द्विजवर बलिकी मनसुधि कान्हीं॥३३॥ दण्डकमण्डलु हाथ विराजत अरु ओढ़े मृगछाला । धरि वटुरूप चले वामन जू अम्बुज नयन, विशाला।। ३३३ ।। सूरज कोटि प्रकाश अंगमें कटिमेखला विराज । करी वेदध्वनि नृपद्वारे पै. मनहुँ महाघनगाजै ॥ ३३४॥ सुनिधायो तवहीं बलिराजा आय चरण शिरनायो । विनती करी बहुत सुखमान्यो आज भयो मन भायो ॥ ३३५ ॥ चलिये विप्र यज्ञशालामें जहँ द्विजवर सब राजें। आये ब्रह्मसभा वामन सूरज तेज विराजै ॥ ३३६ ॥ तव नृप कहेउ कछू द्विज माँगो. रत्नभूमि मणिदान । हय गज हेम रत्न पाटम्बर देहौं प्रगट प्रमान ॥३३७ ॥ तव वाले वामन यह। वाणी सुन प्रहाद कुलभूपः । बहुत प्रतिग्रह लेत विप्र जो जाय परत भवकूप ॥३३८॥ तीन पैंड वसुधा हम पाएँ पर्णकुटी इक कारण । जब नृप भुव संकल्प कियो है लागे देह पसारन ॥ ३३९॥ एक पैंडमें वसुधा नापी एक पैंड सुरलोक । एक पैंड दीजै वलिं. राजा तब बैंहो विनशोक ॥३४० ॥ नापो देह हमारी द्विजवर सो संकल्पित कन्हिों.। सुनि || प्रसन्न वामन यों बोले तैं मोको वश कीन्हों ॥ ३४१ ॥ सदा द्वार तेरे ठाढोढ दरशन देहौँ तोहि । मायाकाल कबहुँ नहिं व्यापं सुमिरन करतै मोहिं ॥३४२॥ सुतल लोकमें थिरकार थाप्यो जहँ : विभूति अति भारी । गहिकै गदा द्वारपर ठाढ़े वामन ब्रह्म मुरारी ॥ ३४३ ॥ स्वर्गलोक | दीन्हों सुरपतिको पुनि थिरकर कर थाप्यो । निगम नेति कहि रटत निरन्तर देव शत्रु सबं काप्यो ।। ३४४ ॥ वामनरूप ब्रह्महरि प्रकटे जिनको यश जग गावैः । शेप सहसमुख रटत निरंतर सूर पारकिमि पावै ॥ ३४५ ॥ पुनि बलि राजाह स्वर्गलोकमें थाऐंगे हरि राय । सर्व भौम | : अवतार धरेंगे श्रीवामन सुखदाय ॥३४६॥ पुनि विभुरूप एक हरि लेंगे सकल जगत कल्याण। कपट खण्ड पाखंण्ड असुरको थापे भक्त निदान ॥ ३४७ ॥ विष्वकसेन रूप हरिलेंगे कीन्हो । शिवको हेत । असुर मारि सब तुरत विडारे दीन्हें रुद्र निकेत ॥३४८॥ धर्मसेतु वै धर्म बढ़ायो. भुविको धारण कीन्हों। शेषरूप वै धराशीश फिर सब जगको सुख दीन्हों ॥ ३४९ ॥ अन्त यामी पालन कारण निज सुधर्म धरि रूप । अन्नदान दै सब जग पोष्यो किये काज सुर भूपः॥ ॥३५॥ योगपन्थ पातंजलि भाष्यो सोउ क्षीण सब जान्यो । योगीश्वर वपुधरि हरि प्रकटे योग समाधि प्रमान्यो ॥ ३५ ॥ क्रियापंथ श्रुतिने जो भाष्यो सो सब असुर मिटायो । वृहद्भानु । % 3D ।