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दशमस्कन्ध-१०


पिआइ विठुरे पढ़ दीनो ज्ञान ॥ ए नहीं हैं कृपालु केशव एहैं हिए समान । निकरि क्यों न गोपाल बोलत दुखिन के दुखजान ॥ रूप रेख न देखिए तहां मूठ सुमिरि भुलान । इनहि दंड अडारि हरि गुण योगजान वखान । वीतराग सुजान योगिन भक्त जनन निवास । निगमवाणी मेटि काहि क्यों सकै सूरजदास ॥९५॥ आवन आवन कहि गए पै ऊधो अजहूं नहिं आए । इतनी दूरि गोपाल सँदेशन मधुपन दये पठाए । चलत चितै मुसकाइ कै मृदु वचन सुनाए । तेही ठग मोदक भए मनधीर नहरि तन छूछो छिटकाए ॥ जगमोहन यदुनाथके गुण जानिहुपाए । मनह सुर यहि लाजते घनश्याम सुंदर वर बहुरि न चरण देखाए ॥९६॥ माधो मन मर्याद तजी। ज्यों गज मत्त जानि हरि तुमसों वात विचारि सनी ॥ माथे नहीं महावत सतगुरु अंकुश ध्यान कर टूटो । धावत अध अवनी आतुर तजि साकर सगुण सुछूटो ॥ इहै यूथ संग लए विहरत त्रिया काननहु माहिं । क्रोध सोच जल सो रतिमानी कामभक्ष हित जाहिं ॥ अयुत अधार नहीं कछु समुझतभ्रम गहि गुहारहै । सूरश्यामके हरि करुणामय कवनहि विरदु गहै॥९७॥ नट ॥ सखीरी पुरवनि ता हम जानी । याहीते अनुमान करतहैं पटपदसे अगवानी ॥ अवतौ राज तहां सुनियतहै कुवि जासी पटरानी । प्रथम ग्वाल गाइन सँग रहते भए छाँछके दानी ॥ अर्थ निशा ब्रजनारि संगल वनवंसी लीला ठानी । मन हरिलियो बजाइ बाँसुरी अब होइ बैठे ज्ञानी ॥ महामल्ल मारत मन मोहन नाहीं समता आनी । सूरदास ए कलपतनैना कहै कौन अब वानी ॥९८॥ विलावल ॥ जिन कोई वशपरो वरिआए। सरवस दियो आपनो उनको तऊ न कछू कान्हके भाए । सहज समाधि रहत योगी ज्यों मुद्रा जटा विभूति लगाए । राजकरौ इह दान तिहारो जोपै देहु बहुत हरिध्याए । ना जानौं अवमलो मानिहै ऊधो नाचे गाए।सूरदास प्रभु दरशन कारण मानो फिरत धतूराखाए। ॥९९॥ मलार ॥ जोपे कोर विरहिनको दुखजानै । तो तजि सगुण साँवरी मूरात कत उपदेशै ज्ञान कुमुद चकोर मुदित विधु निरखत कहा करै लै भानै ॥ चातक सदा स्वातिको सेवक दुखित होत विनपान । भिवर कुरंग काक कोयलको कविजन कपट वखानासूरदास जो सरवस दीजे कारे कतहि न माने ॥३४००॥ मलार श्यामविनु क्यों जीवें व्रजवासी । इहि घट प्राण रहत क्यों ऊधो विठुरे कुंजविलासी ॥ कुविजा वर पायो मोहनसों मनो तपकियो काशीरश्यामको इहै परेखोइ क दुख दूजी हांसी ॥१॥ गौरी ॥ ऊधो कैसे जी कमलनेन विनु । तपती पलक लगत दुख पावत अब जो निरखि भरिजात अंग छिनु ॥ जो ऊजर खेरेके देवनको पूजे को मान । तो हम विन गोपाल भए उधो कठिन प्रीतिको जानै । तुमते होइ करो सो उधो हम अबला बलहीन । सर वदन देखे हमजीवें ज्यों जलभीतर मीन ॥२॥ धनाश्री ॥ लरिकाईको प्रेम कहो अलि कैसे छटत । कहा करों व्रजनाथ चरित अंतर्गति लूटत ॥ वह चितवन वह चाल मनोहर वह मुसुक्यानि मंद ध्वनिगावन । नटवर भेप नंदनंदनको वहविनोद जोवनको आवन ॥ चरणकमलकी सौंह करतहोंडा संदेश मोहिं विपसों लावतासूरदास मोहिं पलक नविसरत मोहन मूरति सोवत जागत ॥३॥ उद्धव वचन धनाश्री ॥ यह उपदेश कह्योहै माधो । करि विचार सन्मुख साधो ॥ इंगला पिंगला सुमना नारी । शून्य सहजमें वसाह मुरारी ॥ ब्रह्मभाव करि में सब देखो । अलख निरंजन ही को लेखो ॥ पद्मासन इक मन चित ल्यावो । नैन मंदि अंतर्गति ध्यावो ॥ हृदयकमलमें ज्योतिप्रकाशी । सो अच्युत अविगति अविनाशी ॥ यहिप्रकार विष मन मतरिये । योगपंथ क्रम क्रम अनुसरिए ॥ दुसह सँदेश सुनत व्रजवाला । मुरछि परी धरणी