पुरातन सुमिरि सांवरे सुरति सँदेशो दौनी । तैं अलि कहत औरकी और श्रुति मतिकी उर लीनी ॥ येहो सखा कहे नहिं मानत गहे योगकी टेक । ऐसे सूर बहुत मधुवनमें कहा दोपहै एक ॥ ७६ ॥ धनाश्री ॥ वतिअन सबकोऊ समुझावै । ऐसो कोउ नाहिने प्रीतम ले ब्रजनाथ मिलावै ॥ आयो दूत कपटको वासी निर्गुण ज्ञान बतावै । हमारे सखा श्याम मनोहर नैनन भार न देखावै ॥ ज्ञान ध्यानको मर्म नजाने चतुरहि चतुर कहावै । सूरदास सबै काहूको अपनो ही हित भावै ॥७७॥ मलार ॥ उधो क्यों विसरत वह नेह । हमरे हृदय आनि नँदनंदन रचि रंचिं कीन्हे गेह । एक दिवस गई गाइ दुहावन तहां जो वरपो मेह । लिये वोदाय कामरी मोहन निजकरि मान्यो देह ॥ अव हमको लिखि लिखि पठवत है योग युक्ति तुम लेह । सूरदास विरही क्यों जीवे कौन सयानप येहु ॥७८॥ ऊधो नंदको गोपाल गिरिधर गयो तृण जो तोर । मीन जलकी प्रीति कीनी नाहिं निवही वोर ॥ अवकै जब हम दरश पावें देहि लाख करोर । हरिसों हीरा खोइकहाँ रहि समुंद्र डडोर ॥ ऊधो हमारो कछु दोप नाहीं वै प्रभु निपट कठोर । ही जपों तुम नाम निशि दिन जैसे चंद्रचकोर ॥ हम दासी चिनमोलकी उधो ज्यों गुडी वश डोर । सूरकै
प्रभु दरशदीजै नहीं मनसा और ॥ ७९ ॥ सौरठ ॥ ऊधो अवरै कान्ह भए । जवते यह व्रज छांडि मधुपुरी कुविना धाम गए ॥ के वह प्रीति रीति गोकुलवसि दुख सुख प्रीति निवाहत । अब इह करत वियोग देह तुम सुनत काम दव डाहत ॥ जहां स्वारथ हरि गुण सांवरा निगुण कपट सुनावत । सूर सुमिरि ब्रजनाथ आपने कत न परेखो आवत ॥ ८०॥ माफ ॥ उधो जो तुम हमाहिं वतायो । सोहम निपट कठिनई करि करि या मनको समुझायो । योग याचना जवहिं अगहगहि
तवहीं है सो ल्यायो । भटक परयो वोहितके खग ज्यों फिरि हरिहोपे आयो ॥ अवकैती सोई उपदेशो जेहि जिय जाइ जिआयो । वारक मिलें सूरके प्रभु तो करों आपनोभायो ॥८१॥ धनाश्री ॥
उधो मन मानेकी वात । दास छोहारा छाँडि अमृतफल विपकीरा विपसात ॥ जो चकोरको देइ कपूरकोउ तीन अंगारहि अघात । मधुप करत घरकारे काठमें बधत कमलके पात ॥ ज्यों पतंग हित जानि आपनो दीपक सों लपटात । सूरदास जाको मन जासों सोई ताहि सुहात ॥८२॥ सोरठ॥ बातें कहत सयाने कीसी । कपट तिहार प्रगट देखिमत ज्यों जलना ऐसीसी ॥ होतो कहति तिहारे हितकी एतेमो कत भरमति । छाइ वसाइ गए सुफलकसुत नेकहु लागी वारन । सूर कृ पाकरि आए उधो तापर लागे टारन ॥ ८३ ॥ विलानल ॥ उधो हम ऐसे गोपाल विनु । सबहीये जसे हरु मोतिनु । सोचत गनत जाइ यहि विधि दिनु। युगनिशि होत हमहिं एको छिन। कहियो
सुर संदेश श्याम तिनु । जिनि राखो प्रभु पोच वचन ऋतु ।। हरि कित भये वजके चोर । तुम्हरे मधुप वियोग उनके मदनकी झकझोराइक कमल पर धेरै गज रिपु एक कमल पर शशिरिपुजोर। दोऊ कमल एक कमल ऊपर जगी एकटक भोर।। इक सखी मिलि हँसति पूछति बँचि करकी कोर। तज मुवाइ सु भसत नाही निराखि उनकी ओर विरस रासनि सुरति कार कार नैन बहुजल तोरि तीन त्रिवली मनो सरिता मिली सागर छोर ॥ पट रुंध अधरनि माल ऊपर अजयारिपुकी घोर ।
सुर अवलनि मरत ज्यावो मिलो नंदकिसोर ॥८५॥ सारंग ॥ मधुकरतोहिं कीनसों हेतुाजोपे चढत गतोऊपर त्यों पै होव श्यामता सेतु ॥मोहन मणिनिडार मोलीते कार आए मुखप्रीति ।अतिशठ
ढीठ वसीठ श्यामको हमें सुनावत गीति॥जो कारिख तनु मोटो चाहत तो कमल वदन तनु चाहि । सूर गोपाल सुधारसमें मिलि आवन संग समाहि ॥८६॥ गृहो ॥ उधो सुनौ वृथा तनुतात ।
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दशमस्कन्ध-१०