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दशमस्कन्ध-१०


जानत हैं परपीरकी ॥९९॥ धनाश्री ॥ अब हरि क्यों वसे गोकुल गवई । वसत नगर नागर लोगनमें नई पहँचानि भई ॥ इक हरि चतुर हुते पहिलेही अब बहुतै उन गुरु सिखई । हम सब गर्वगवारि जानि जड अधपर छांडि दई ॥ ऊधो मुख जोवत कुविजाको ब्रजवनिता सब विररि गई । याहीते चतुर सुजान सूर प्रभु औ ए ग्वाली सँग न लई ॥३३००॥ गौरी ॥ प्रेम न रुकत हमारे बूते । किहि गयंद बाँध्यो सुन मधुकर पद्मनालके काचे सूते । सोवत मनसिज आनि जगायो पठे सँदेश श्यामके दूते । विरह समुद्र सुखाइ कवन विधि किरचक योग अनिके लूते । सुफलक सुत अरु तुम दोउ मिलिलै जैये मुक्ति हमारे हूते । चाहति मिलन सूरके प्रभुको क्यों पतियाहि तुम्हारे धूते ॥ १ ॥ मलार ॥ वै गोपाल गोकुलके वासी । ऐसी बातें बहुतै सुनि सुनि लोग करत हैं हाँसी ॥ मथि मथि सिंधु सुधासुर पोपे शंभुभए विप आसी । इमि हति कंसराज औरहिदै आए चले हैं दासी ॥ विसरयो हमाह विरह दुख अपनो सुनत चाल ऐरासी । जैसे ठग विलोकि गुप्त निधि प्रगट नपरखै फांसी ॥ आरजपंथ छुडाइ गोपिका कुल मर्यादानाशी । आप करत सुख राज सूर प्रभु हमें देत दुख गासी ॥ २ ॥ धनाश्री ॥ इह कछु नाहिंन नेह नयो । महो मधुप माधव सो इह ब्रज विधिते पहिल भयो । वीज मन माली मदन चुर आल वाल वयो । प्रेमपय सींचो पहिलही सुभग जीवरि दयो । इते श्रम तन श्यामसुंदर विरवा विमल बढ्यो । मुरली मुख छवि पत्र शाखा हग दुरेफ चढयो । कमल तजि तनु रचत नाही आकको आ मोद । सूर जो गुण वचन परसत विन गोपाल विनोद ॥ ३ ॥ मलार ॥ उघो अब यह समुझि भई । नँदनंदनके अंग अंग प्रति उपमा न्याइ दई ॥ कुंतल कुटिल भँवर भामिनि वर मालति भुरै लई । तजत न गहरु कियो तिन कपटी जानि निराश गई । आनन इंदु वरन संपुट तानि कर खेते न नई । निर्माही नवनेह कुमुदिनी अंतहु हेम मई ॥ तन धन सजल सेइ निशि वासर रटि रसना छिनई । सूर विवेक हीन चातक मुख बूंदै तीन श्रई ॥ ४ ॥ सारंग ॥ ऐसो माई एक कोदको हेतु । जैसे वसन कुसुभरंग मिलिक नेक चटक पुनि श्वेताजैसे करनि किसान वापुरो नौनौ वाह देत । एतेह पर नीर निठुर भयो उमॅगि आपुही लेत ॥ सब गोपी पूछहिँ ऊयो को सुनियो पात सुचेत । सूरदास प्रभु जनते विछुरे ज्यों कृत राई रेत ॥५॥ सारंग ॥ मुख देखेकी कौन मिताई । जैसे कृपणहि दीन माँगनो लालच लीने करत वडाई ॥ प्रीतम सो जो रहै एक रस निशि वासर बढि प्रेम सवाई । चितमहि और कपट अंतर्गति ज्यों फल खीर नीर चिकनाई । तब वह करी नंदनंदन अलि वन वेली रसरास खिलाई । अब यह कितहीदूरि मधुपुरी ज्यों उड़ भवर वेलि तजि जाई ॥ योग सिखाए क्यों मन माने क्यों व ओसकन प्यास बुझाई । सूरदास उदास भई हम पाखंड प्रीति उपरि निज आई ॥ ६ ॥मलार ॥ मधुकर मन मुनि योग डरे । तुमहूँ चतुर कहावत अतिही इतनी न समुझि परै ॥ और सुमन जो अनेक सुगंधिका शीतल रुचि जो करै । क्यों तुमको कहि वनै सरै ज्यों और सबै अनरै । दिनकर महाप्रताप पुंज वर सवको तेज हरै । क्यों न चकोर छाँडि मग अंकहि वाको ध्यान धरै उलटोइ ज्ञान सकल उपदेशत सुनि सुनि हृदय जरै । जंवू वृक्ष कहो क्यों लंपट फलवर अंबु फरै ॥ मुक्ता अवधि मराल प्राणमै अवलगि ताहि चरै। निघटत निपट सुर ज्यों जल विनु व्याकुल मीन मेरै ॥ ७ ॥ आसावरी ॥ ऊधो योग योग हम नाहीं। अवला सार ज्ञान कहा जानें कैसे ध्यान धराही ॥ते ये मूंदन नैन कहत हैं हार मूरति जामाही । ऐसे कथा कपटकी मधुकर हमते सुनी न जाहीं ॥ श्रवण चीर अरु जटा वधावहु ए दुख कौन