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दशमस्कन्ध-१० (५४३) . हरि वरुणपाशमो ल्याए ॥ भक्त विरह कातर करुणामय वेद निरंतर गाए । कोहै. योग सुनतः इह ऊधो- सूरश्याम मनभाए॥७९॥मलार। हमारे कौतः वेदविधि साधावटुवा झोरी दंड अधारी इतनेन को आराधे ॥ जाको कहूँ थाह नहिं पइअत अगम अपार अगाधै । गिरिधर लाल छवीलेको यह कहा पठायो पाधै।।सुनु मधुकर जिन सर्वस चाख्योसो.अबक्यों सचुपावत आधे।सूरदास मणिश्याम छांडिकै घुघुचि गांटिको बांधे।।८०॥ निहितनु गोकुलनाथ भज्यो।उधो, हरि: बिछुरत ते. विरहिनी | सोतनु तबहिं तज्यो। अब: या और सृष्टि: विरहकी; वकत: वाइ वौरानी । तिनसों उत्तर कहा देतही तुमतो पूरण ज्ञानी ॥जव: स्पंदन: चढ़िः गमन कियो, हरि फिरि.चितयो गोपाल । तवहीं परम, कृतज्ञःप्राणसँग उठिलागे. तोहकाल. ॥ अव औसान घटत कहि कैसे उपजी मन परतीति। सूरदास कछु कहत नआवै कठिन विरहकी रीति८||गोरीमधुप वारवार काहेको और कथा कहता प्रभुकी प्रतीत. गए नाहिंन. कछु रहतः ॥ पवन तेज अरु आकासः पृथ्वी:अरु पान्यो। तामें ते.नंदनंदन कहा.पालि.सान्यो ॥. कमलनेनःश्याम सुंदर कौने नहिंभावे । ताको तू.गुप्तकर आनेः कछुः गावै ।। सुरसो नंद प्रभु दयालु लीला षपुधारी । निर्गुणते. सगुणभए संतन हितकारी ।।२।। ॥ सारंग । कहिये तासो.जो होइ विवेकी तुमतौ अलि.उनहींके संगी: अपनांगों के टेकी ।. ऐसीकोः आली वैसीई: तोतों मूंड चढ़ावैः ॥ झठी वात तुसीसी; बिन कन,फटकत हाथ न आवे ।। अज़हूं लौं | अंगहु नहि छाँड़त, यह, मूरखमतिभोरे । मनाक्रम वचन:सूर अभ्यंतर नंदनंदन,हितमोरे ॥८३|| कहिये तासों जो होइ, विवेकी । एतो अलि उनहीके संगी: अपने वातके.टेकी ॥ ऐसीबात कही। तुम उनसों. जो नहिं जाने बूझे। सूरदासः नँदनंदनःविनु देखे और नसूक्ष.॥८॥ कान्हरो ॥ उधोः । निर्पण कहत होतुमही.धों.नेहु । सगुणमूरति नंदनंदन हमहि आतियदेहुः। अगमपंथ परमकठिनः । गमन तहां:नाहि । सनकादिक भूलिं फिरे अवला कहां जाहिं ।। पंचतनु परमकान्ह: अपर कैसेः ।। जानी: । मन वच करि कर्मरहित वेदहकी.वानी.कहिए.जो, निवाहिवे अकथना कहूँ सोही । सर। श्याम मुख सुचंद्रलोनीः युवतिमाहीः ॥ उधो: सूघे नेकु निहारो। हमः अवलनिको सिखवन आएःसुनो:सयानः तिहारो॥.८५ ॥ निर्गुण कहो कहा। कहियतहै. तुम निर्गुण) अतिभारी: ।: सेवतः सगुणः श्यामसुंदरको मुक्तिलही हम. चारी. ॥ हम. सालोक्यस्वरूप. सरो ज्यो: || रहत समीपःसहाई।सो,तनि कहत औरकी और तुम अलि बडे अदाई।हम मूरख तुम बड़े चतुरहो' बहुत कहा अव:कहिए।वही काज फिरत भटकत कत अब मारग निजः गहिए। अहो अज्ञान कतहिः ।

उपदेशता ज्ञानरूपहमही निशिदिन ध्यानः सूर प्रभुको अलि,देखति- जितातितही। माउधो

| कोउ नाहिंन: मधिकारी ॥ लै नजाहु यह योग आपनो कतः तुम होत दुखारी ॥ यहतौ वेद उपानि । | पदको मतः महापुरुषव्रतधारी: इमः अबला अहीरिः ब्रजवासिनि देख्योः हृदयःविचारी ॥ कोहै. सुनतः कहत कासोंहो कौन कथा अनुसारी सुरक्ष्यामःसँगज़ात भयो मन अहिःकांचुली उतारी।।८७. केदारो ॥ उधोराखिए यह बात कहतहो, अनगढिन अनहद सुनत हो चपिजातः॥ योग अलि । कूष्मांड जैसो अजा। मुख.नसमात-1, वाउ वार नभाषिए कोउ. अमृत तजि विष खात ॥ नैनः | प्यासे रूपं जलके. दिये नहिन अधातासूर प्रभु मनहरयो जबलो तौलगि तनु कुशलाता८॥ ॥ सारंग:।। उधो और कथा कहोः। तजिये ज्ञान- सुनत तावत तनु वरराहि मौन रहो ॥ रुचि द्वम प्रीति रीति नैनन जल सीचि ध्यान झर,लागी,। ताके प्रेम सुफल. मुनि श्रावतः श्याम सुरंग अनुरागी. ॥ ग्रीपमा अलि आए: उपजी ब्रज़ कठिन योग : रवि, हेरो। वन: मुरझात:सूरको राखैः ..- - .- - . -