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सूरसागर।


प्रीतिकी कछु रीति न्यारी जानिहो मनमा । नैन नींद नपरे निशि दिन विरह डाठी देह ॥ कठिन निर्दय नंदके सुत जोरि तोरो नेहाकौन तुमसों कहै मधुकर गुप्त प्रगटित वात । सुरके प्रभु क्यों वन ज्यों करे अवलाघात ॥७०॥ सारंग ॥ ऊधो त कत चतुर कहावत । जेनाहं जाने पीर पराई है सर्वज्ञ जनावत ॥ जो पै मीन नोरते विछुरे को कार जतन जियावत । प्यासे प्राण जातहैं जल विनु सुधा समुद्र वतावत ॥ हम विरहिनी श्यामसुंदरकी तुम निर्गुणहि वचावतं । योग भोग रस रोग सोग सुख जाने जगत सुनावत ॥ एग मधुप सुमन सब परिहरि कमल बदन रसभावत । सोक्त्त जागत स्वप्न रौंने दिन वह मूरति मोहिं भावत ॥ कहि कहि कपट सँदेशन मधुकर कत चकवाद वढावत । कारो कुटिल निठुर चित अंतर सूरदास कवि गावत ॥७१॥ मधुकर समना ऐसो रैरन । अहो मधुप निशि दिन मारयतु है कान्ह कुअर अवसेरन । चित चुमि रही मनोहर मूरति चपल हंगमके हेरन । तन मन लियो चुराई हमारो वा मुरलीकी टेरन । कहत न वने कांध कामरि छवि वन गैयनको घेरन । वरणि न जाइ सुभग उर सोभा पीतांवरकी फेरन ॥ तुम प्रवीन हारे हमाह बतावत अगहि गहत भट भेरन । नंदकुमार छाडिको लेह योग दुखनको टेरन ॥ जहां न परम उदार नंदसुत मुक्त परो किन झरनासर रसिक विनुको जीवतिह निर्गुण कठिन करेग्न ॥७२॥ बिलावल ॥ काहेको रोकत मारग सूधोोसुनहु मधुप निर्गुण कंटकढे राजपथ क्यों सूधोकै तुम सिसै पठाए कुविजा कही श्याम घन जीधोविद पुराण स्मृति सव ढूंढो युवतिन योग कहूँ धो ॥ ताको कहा परेखो कोजे माँगत छाँछ । न दूधो ॥ सूरमूर अक्रूर गयोलै च्याज निवरतं ऊधो ॥७३॥सारंग ॥ मधुकर समुझि कहो किन बाताका हेको हियरा सुलगावत उठि न इहाते जाताजेहि उर वसत यशोदा नंदन निर्गुण कहा समाताकत भटकत डोलत कुसुमनि सँग तुम कित पातन पात । यद्यपि सकल वेलिं वन विहरत जाइ बसत जलजात । सूरदास ब्रज मिलवत आए दासीकी कुशलात ॥७४॥ धनाश्री ॥ तुमतो अपनेही मुख । झूठे। निर्गुण छवि हरि विनुको पावै ज्यों आँगुरी अँगूठे॥ निकट रहत पुनि दूरि बतावत होरस माहँ अपूछे । दुइ तरंग दुइ नाव पाँव धरि ते कहि कवनन मूठे ॥ हमसों मिले वर्ष द्वादश दिन चारिक तुमसों टूठे । सूर आपने प्राणन खेलै को खेलें रूठे ॥७५॥ मलार ॥ ऊधो बूझति है अनुमान ॥ देखिअत नाहिं जतन जीवेको इत विरहा उत ज्ञान ॥ इतहि चंद्र चंदन समीर मिलि लागत अनल निधान । उत निर्गुण अवलोकन मनको कठिन विरोधी प्रान ॥ इत भूषण भै करत अंगको सब निशि जागि विहान । उत कहुँ सुनत समाधि कछू नाहं गूढ कठिनको जान ॥ दुसह दुराइ विपत्ति वियोगहि नृप वडे दोउ समानाको राखे सूरज यहि अनसर कमल नैन विन आन ॥७६॥ सारंग ॥ मधुकर राख योगकी वाताकहि कहि कथा श्याम सुंदरकी शीतल कार सव-गातानिइ निर्गुण मुण हीन गनै गो सुनि सुंदार अलसात । दीरव नदी नाउ कागरकी को देखो चढिजात ॥ हम तनं हरि चितै अपनो पट देखि पसारहि लातासूरदास वा सगुण वासिकै कैसे कल्पा विहाता ॥७७॥ मलार ॥ योगसों कौने हार पाए । निज आज्ञा तप कियो विधाता कब रस रास खिलाए । योग युक्ति शंकर आराधी परम तत्व नवलाए भुजधार ग्रीव काहि नदनंदन हिलि मिलि कलं सुर गाए ।विंगदालभ्य महाऋषि कबहूँ तुंण छाया नकराए । वर्पत दुखित जानि मन मोहन कब गिरिवर कर छाए । अति तप पुंज विष दुर्वासा दूर्वा तृण नित साए । चक्र सुदर्शन तपत महामुनि कंत्र मुख अनल समाए ॥ बहु तप कियो माकडे द्विज आय सिंधु भर माए । सप्तकल्प वीती कय काई ।