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दशेमस्कन्ध-१० . | हम तुमको दीन्यो । सूरदास ज्यों विप्र नारि पर करहि वंदना कीन्यो ॥ ११॥ ज्ञान योग अव लनि अहीरिसों कहतन आवै लाज । ऊधो सखा श्यामके कहियत पठए होवे काज ॥जालायक जो बात होइ सो तैसिये तासों कहिये । विना नाद संगीत सुधानिधि मूढहि कहा सुनइये ॥ हम जानीजु विचार पठाए सखा अंग परवीन । सुखदैहैं मोहन कहि बतियां करत योग आधीन ॥ मुरली अधर मोरके पांखें जिन इह मूरति देखि । सोव कहा जाने निर्गुणको सोहै भीति चित्र अवरेखि ॥ पालागों तुम बड़े सयाने अनवोलेही रहियो । सिखये योग सूरके प्रभुको उनहींसों फिरि कहियो ॥१२॥ धनाश्री ।। उधौ काहेको भक्त कहावत । जोपै योग लिखि पठयो हमको तुमहु नभस्म चढावत ॥ सींगी मुद्रा भस्म अधारी हमहीको कहा सिखवत । कुविजा अधिक श्यामकी प्यारी ताहि नहीं पहिरावत। यहतो हमको तवहि न सिखयो जयते गाइ चरावत । सूरदास प्रभुको कहियो अब लिखि लिखि कहा पठावत१३॥नया ऊधो न हम विरहिनि न तुम दास । कहत सुनत घट प्राण रहतहैं हरि तजि भजहु अकास ॥ विरही मीन मरै जल विहुरे छोडि जीवनकी आस । दासभाव नहिं तजत पपीहा वरुसहि रहत पियास ॥ पंकज परम कमल में विरहत विधि कियो नीर निरास । राजिवरविको दोप न मानत शशिसों सहज उदास ॥ प्रगट प्रीति दशरथ प्रति पाली प्रीतमको वनवास । सूरश्याम सों पतिव्रत कीन्हों छांडि जगत उपहास ॥ १४॥ ऊधो विनती सुनो इक मेरी। तबके विछुरि गए नँद नंदन कामके दली घेरी ॥ देखो हृदय विचारि तुमहिं अव.प्रीति रीति सव केरी। जहां जाकी निधि तहां सब सोपे ज्यों मृगनाद अहेरी । वैद शमास रतन रस वसते शशि विन रैनि अँधेरी।सूरदास स्वामी कव आवें वास करन जफेरी॥१५ ॥ सारंग ॥ मधुकर कहा प्रवीन सयाने । जानत तीनि लोककी महिमा अवलनि काज अयाने ॥ जे कच कनक कचोरा भरि भरि मेलत तेल फुलेल। तिन केशनको भस्म चढावत टेसू केसे खेल ॥ जिन केशन सवरोगहि सुंदर अपने हाथ विनाइ । तिनको जटा कहा नीकी कह कैसे कहि आइ ॥ जिन श्रवणन ताटक खुभी औ करनफूल खुटिलाऊ.। तिन श्रवणन कश्मीरी मुद्रा लै लै चित्र झुलाऊ । भालतिलक अंजन चख नासा वेसरि नथमें फूली । ते सब तजि अलि कहत मलनमुख उज्ज्वल भस्म खुली। जिहि मुख गीत सुभापित गावत कहति परस्पर गास। ता मुख मौन गहे क्यों जीजे छूटत ऊरध श्वास ॥ कंठ सुमाल हार मुक्ताके हीरा रत्न अपार । ताहू. कंठ वाँधिवे कारण साँगी योग शृंगार ॥ कंचुकि छीन छीन पटसारी चंदन सरस सुछंद । अब कंथा एकै अति गुदरी क्यों उपजी मतिमंद ।। ऊधो. ऊधो सव पाला- देखो ज्ञान तुम्हारो। सूर सुप्रभु मुख फेरि देखिहँ चिरजीजै कान्ह हमारो ॥१६॥ हमतो दुहूं भांति फल पायो। जो गोपाल मिलें तो नीको नातो जगत यश गायो॥ कहा हम या गोकुलकी गोपी वरणहीन घटि जाति । कहँ वै श्रीकमलाके वल्लभ मिलि बैठी इकपांति । निगम ज्ञान मुनि ध्यान अगोचर सो भए घोष निवासी। ता ऊपर अब कहाँ देखि मुक्ति कौनकी दासी ॥ योग कथा ऊधो पालागौं नाकहु वारंवार । सूरश्याम तजि और भजै जो ताकी जननी छार ॥१७॥ मारू ॥ मोहिं अलि दुहुँ भांति फल होति । तब रस अधर लेत जो मुरली अब भइ कुविजा सौति ॥ तुम जो योग मत सिखवन आए भस्म चढावन अंग । इन विरहिनि में कहूं तू देखी सुमन गुहाए मंग ॥ कानन मुद्रा. पहिरि मेखला धेरै जटा योग अधारी । इहां तरल तरिखना काके अरु तन सुखकी सारी॥ परम वियोगनि रटत रौनि दिन धरिमनमोहन ध्यानातुमतौ चलो वेगि मधुवनको जहां योगको ज्ञान.