तजि चरत तृणते सुनत वात नई । अब भोग कुविना सुंदरीसों कौन बुद्धि दई ॥ नैन नीर प्रवाह सरिता ज्वाल जाल छई। सूर प्रभुको कृपा जाको सकल सिद्धि भई ॥२॥ हमसों उनसों कौन सगाई । हम अहोर अवला ब्रजवासी वै यदुपति यदुराई ॥ कहाभयो जुभए नंदनंदन अब इंह पदवी पाई । सकुच नआवत घोष वसतकी ताज बजगए पराई ॥ ऐसे भए वहां यादवपति गए
गोप विसराई । सूरदास यह व्रजको नातो भूलिगए वल भाई ॥३॥ सोरठ ॥ हरि निमोहियासों प्रीति कीनी काहेन दुख होई । कपटकी कार प्रोति कपटी ले गयो मन गोई ॥ सौंचिआ मजीठ जैसो निकट काटी पोई हमारे मनकी सोई जाने जामें वोती होई ॥ काल बदन ते राखिलीन्ही इंद्रगजे खोई । सूर गोपिन ऊधो आगे डहकि दीन्हो रोई ॥४॥ ऊधो तुम यह मत ले आए । इक हम जरै खिझावन आए मानो सिखे पठाए । तुम उनके वे नाथ तुम्हारे प्राण एक इक सारे। मित्रके मित्र सजनके सज्जन ताते कहत पुकारे ॥ रे सुन मूढ़ जरत अवलनिको परदुख तू नहिंजान । निपट गँवार होइ जो मूरख सो तेरी बातें माने । हम रुचिकरी सुरके प्रभुसों दूजो मन नसुहाई ॥ उलट
जाहि अपने पुरमाही वादिहे करत लराई ५॥मारू॥ हरि मुख देखही परतीति । जो तुम कोटि भांति परवोधो योग ध्यानकी रीति ॥ नहि कछू सयान ज्ञान में इह नीके हम जाने । कहो कहा कहिए वा प्रभुसों कैसे मनमें आने ॥ इह मन एक एक वह मृरति भंगी कीट समानै । सूरशपथदै ऊधो पूंछो इहि ब्रज कौन सयान ॥६॥ ऊधो वात तिहारी को सुने । हरिपदपंक जमन मधुकर गह्यो मन विनवात कछू नवनै । योग युक्तिको बडो विस्तारहै ऐसे ठोर नहिं अपने । ब्रजवासिन को इतनो हियोहै कृष्णलेत संकोच वनै ॥ तहां जाउ जहां बैठे योगी इहां कामरस रहौ धनै । हम अहोर कृष्णमदमाती मुखसों क्यों मित्रपनै ॥ जो तुम जानत तत्त्व कृपाला मौन रहो तुम घर अपने । घर घर फिरत लेव लेख नाहीं वस्तुको
मोल हनै । भूख न प्यास नांदगई हरिविनु पति सुत गृहकी कौन तनै ॥ माया और छूटगए यमुना अधिक कहालौं योग वनै । सोहरि प्राण प्राणते वल्लभ मोहनलीलाहै अकनै । आवत है कछु कह्यो सुरप्रभु नहिती रहो तुम मौन वने ॥७॥ मलार ॥ वातनको परतीति करै । को अब कमलनयन मूरति तजि निर्गुण ध्यानधरै ॥ जो मत वेद कहत युगवीते । रूप देख विन जाने । सोमति मूढ कहत अवलनिसों नहिं सो हृदय समानाजो रस काज देव मुनि चिंतत ध्यान पलक नहिं आवत । सोइ रस सूर गाइ ग्वालन सँग मुरली लेकर गावत ॥८॥ सारंग ॥ नहीं हम निर्गुणसों पहिचानि । मन मन सार स्वरूप सिंधुमें आपनो हम सानि । यद्यपि अलि उपदेशत ऊधो पूरण ज्ञान बखानि । चित चुभिरही मदन मोहनकी जीवन मृदु मुसुकानि ॥
जुरयो सनेह नंदनंदनसों तजि परमिति कुलकानि । छूटत सहज नसूर प्रभु दुख सुखहि लाभ करिहानि ॥९॥ ऊधो जाइ बहुरि सुनि आवहु कहा कह्यो है नंदकुमार । इह नहोइ उपदेश श्यामको कहत लगावन छारा निर्गुण ज्योति कहा उनपाई सिखवत वारंवार । कालिहि करत हुते
हमरे अंग अपने हाथ शृंगार ॥ व्याकुलभई गोपालहि विछुरे गयो गुन ज्ञानसँभार । तातें जो भावै सो वकतही नाहिंन दोष तुम्हार । विरह सहनको हम सरजी है पाहन हृदय हमार। सूरदास अंतर्गति मोहन जीवन प्राण अधार ॥१०॥ अलि तुम योग विसरि जनि जाह । बांधो गाँठि
छूटि परिहै कहूं बहुरि वहां पछिताहु ॥ ऐसी वस्तु अनूपम मधुकर मन जिनि जानहु और । ब्रजवनिताके नाहि कामको है तुम्हरे पैठौर ॥ जो हितु करि पठए मनमोहन सो
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६२७
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५३४)
सूरसागर।