हार विछुरे हम जिती सहत, तिते विरहके घाइ ॥ वरु माधो मधुवनहीं रहते कत यशुमतिके आए । कत प्रभु गोपवेप वजधारयो कत ए सुख उपजाए ॥ कत गिरि धरयो इंद्र प्रणमेव्यो कत वनराशि वनाए। अब कह निठुर भए अवलनिपर लिखि लिखि योग पठाएं। तुम परवीन
सबै जानतही ताते यह कहि आई। आपन कौन चलावे सूर जिन मात पिता विसराई ॥५४॥ नट ॥ ऊधो बात कही नहिं जाइ । मदन गोपाल लालके विछुरे प्राण रहे मुरझाइ ॥ जव स्यंदन चढि गमन कियो हरि फिरि चितए गोपाल । तवहीं परम कृतज्ञ सवै सुठि संग लगी ब्रजवाल ॥ अब यह और सृष्टि विरहनकी वकत वाइ रोरानी । तिनसों कहाहोत फिरि उत्तर तुमहो पूरण ज्ञानी ॥ अब सो साधन घटका कीजै को उपजै परतीति । सूरदास कछु वरणि न आवै कठिन विरहकी रीति ॥५५॥ सारंग ॥ मधुकर जो तू हितू हमारो। पिवहि नरे यह वदन सुधारस छांडि योग जलखारो ॥ सुन शठ नीति सुरभि पय दायक क्यों क्लेति हल भारो । भय भीत होहिं शृंग देखे क्यों व छुवहि अहि कारो ॥ निजकृत समुझिं वेणु दशनन हति धाम सजत नाहिं हारो । तावल अछत निशा पंकज भ्रम दल कपाट नहिं टारो ॥ रे अलि चपल मूढ रस लंपट कतहि वकत वेकाजा सूरश्याम छवि क्यों विरति हे नस शिख अंग विराज ॥५६॥ विलावल ॥
तुम्हारी प्रीति ऊधो पूरव जनमकी अब ज भए मेरे तनहु के गरजी । बहुत दिनन विरमि रहे हो संगते विछोहि हमाहिं गए वरजी ॥ जादिनते तुम प्रीति करीही घटति न बदति तूलि लेहु नरजी । सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन विना तनु भयो व्योंत विरह भयो दरजी ॥५७॥ सारंग ॥ हमहिं बोल बोले
की परतीति । सुनु ऊधो हम नाहिंन जानत तुम्हरे गाँवकी रीति । हमरे प्रीतम तुम जो लेगये आवन कह्या रिपु जीति । तुम्हारी बोलनि कान पतीजे ज्यों भुस परकी भीति ॥ आवन अवधि वदी हरि हमसों सोऊ दिन गए वीति । सूरदास प्रभु मिलहु कृपाकार सुमिरि पुरातन प्रीति ॥५८॥॥सारंग ॥ उधोजो तुम हमहिं सुनायो । सोहम निपट कठिनई हठ करिया मनको समुझायो । युक्ति जतन जीति योग अंगहू गहि अपथ पंथ लै आयो । भटकि भ्रम्यो बोहित के खग ज्यों पुनि पुनि हरि जीपे आयो । हमको सबै आहित लागत है तुम अतिहितहि जनायो । सर सरिता जल होम
किएते कहा अमि सचुपायो ॥ अव सोई उपाउ उपदेशो जिहि जिय जाइ जिवायोवारक मिले सूरके स्वामी कीजहु अपनो भायो ॥५९॥ मलार ॥ ऊधो हरि कहिये प्रतिपालक । जे रिपु तुम पहि
ले हति छांडे बहुरि भए मम शालक ॥ अघ पक वकी तृणावर्त केशी ए सब मिलि व्रज घेरत । सुनो जानि नंदनंदन विनु र आफ्नो फेरत ॥ अरु अपने परिहास मेटनको इद्र रह्यो कार पात । सत्वर सूर सहाय करैको रही छिनकको वात ॥६०॥ कल्याण ॥ उधो तुम जानत गुप्त
हि यारी । सरकाहूके मनकी बूझो बांधो मूढ फिरो ढिग वारी ॥ पीत ध्वजा उनकी मन रंजन लाल ध्वजा कविंजा विविचारा। यशकी ध्वजा श्वेत ब्रजवाँधे अपयशकी उधों पै कारीवितो प्रेम पुंज मनरंजन हमतो शीश योग व्रतधारी । सुर शपथ मिथ्या लँगराई ए बातें ऊधो की प्यारी ६१॥ मलार ॥ श्याम अब न हमारे। मथुरागए पलटि से लीन्हें माधो मधुप तुम्हारे ॥ अव मोहिं आ वत पतु पछतावो कैसे वै गुण जात विसारे । कपटी कुटिल काग और कोकिल अंत भए उडि न्यारे । करि करि मोह मगन ब्रजवासी प्रेम प्रतीति प्राण धन वारे । सूरश्यामको कौन पत्यह कुटिलगात तनु कारे ॥६२॥ अथ श्यामरंग तर्फ वदति ॥ धनाश्री ॥ मधुकर कहां कारेकी न्याति । ज्यों जल मीन कमल मधुपनको छिन नहिं प्रीति खटाति ॥ कोकिल
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दशमस्कन्ध-१०