हौ किधौं नाहीं ॥ तुम परवीन चतुर कहियतही संतन निकट रहतहो । जल वूडत अवलंब फेनको फिरि फिरि कहा गहतहो ॥ वह मुसकानि मनोहर चितवन कैसे उरते टारौ । योग युक्ति और मुक्ति परमनिधि वा मुरलीपै वारौ । जिहि उर कमलनैन जु वसतहैं तिहि निर्गुण क्यों आवै । सूरदास सो भजन वहाऊ जाहि दूसरो भावै ॥ आसावरी ॥ उधो कहांकी प्रीति हमारे । अजहूँ रहत तन हरिके सिधारे ॥ छिदि छिदि जात विरह शर मारे । पुरि पुरि आवत अवधि विचारे ॥ फटत न हृदय सँदेश तुम्हारे । कुलिशते कठिन धुकत दोउ तारे ॥ वर्षत नैन महा जलधारे । उरपाषाण विदरत नविदारे । जीवन मरन दोउ दुखभारे । कहियत सूर लाज पतिहारे ॥७०॥ सारंगा ॥ ऊधो इतनो मोहिं सतावत । कारी घटा देखि वादरकी दामिनि चमकि डरावताहिम-सुतापतिको रिपु व्यापै दधिसुत रथ न चलावतावूखंडन शब्दसुनतही चितचकृत उठि धावत ॥ कंचनपुरपति को जो भ्राता ते सब बलहि न आवतः । शंभूसुतको जा वाहन है कुहकै असल सला
वत ॥ यद्यपि भूषण अंग बनावत सोइ भुजंग होइ धावत । सूरदास विरहिन अतिव्याकुल खगपति चढ़ि किन आवत ॥७१॥ धनाश्री ॥ हमको तुमविन सबै सतावत । लखौन मधुप चतुर माधोसों तुमहूं
सखा कहावत ॥ ताको तनु हरिहरयो दीनसों कुल सर्वागतदीनी । सोइ मारत करि वार पार करि हमको कानन कीनी ॥ सिंधुते काढ़ि शंभुकर सौंप्यो गुनहगारकी नाई । सोशशि प्रगट प्रधान कामको चहुँदिश देत दोहाई ॥ अमरनाथ अपराध क्षमाकरि तबहिं भोग मुकरायो । प्रात इंद्र कोपित जलधरलै ब्रजमंडल पर छायो । पूंछ पूंछ सरदार सखनके इहिविधि दई बड़ाई । तिन अतिबोल झोल तनु डारयो अनल भँवरकी नाई । पंछ छोरि अलिसूझ पंछधीर तिनहूं कोपि जनायो । पत्यो जो रेख ललाट और सुख भेटि दुकार बनायो। कौन कौनको विनय कीजिए कहि जेतिक कहि आई। सूरझ्याम अपने याबजकी इहिविधि कान कटाई ॥७२॥ नट ॥ ऊधो यहु हित लागत काहे । निशदिन नैन तपत दरशनको तुम जु कहत हृदयमाहे ॥ पलक नपरत चहूदिश चितवत बिरहानलके दाहे ॥ इतनी आरति काहे नमिलही जो पर श्याम इहां है । पालागौं ऐसेही रहनदे अवधि आशजलथाहे। जिनि वोरहि निर्गुण समुद्र में पुनि पाई बिनचाहै ॥ उपजि परी जासों तिहि अंग अंग सो अंग वनै निबाहै।सूरकहालै करै पपीहा एते सर सरिताहै ॥७३॥ मलार ॥ ह्यांतुम कहत कौनकी बातें । सुन ऊधो हम समझत नाही फिरि बूझतिहैं तात ॥ को नृप भयो कंस किन मारयोको वसुदेव सुत आहियां यशुदासुत परममनोहर जीजतुहै मुख चाहि ॥ नितप्रति जातं धेनु वनचारन गोप सखनके संग। वासरगत रजनी मुख आवत करतनन गति पंगाको अविनाशी अगम अगोचर को विधि वेद अपार । सूर वृथावकवाद करत कत इहिब्रज नंदकुमार ॥७४॥ उधो हरि काहेके अंतर्यामी । अजहुँ नआइ मिले इहि औसर अवधि बतावत लामी। कीन्ही प्रीति पुहुप सुंडाकी अपने कानके कामी । तिनको कौन परेखो कीजै जे हैं गरुड़केगामी ॥ आई
उपरि प्रीति कलईसी जैसी खाटी आमी । सूर इते पर खुनसनि मरियत उधो पीवत मामी॥७५॥ मधुकर वह जानी तुम सांची। पूरणब्रह्म तुम्हारो ठाकुर आगे माया नाची। यह इहि गाउँ नसमु झत कोऊ कैसो निर्गुणहोत । गोकुल वाट परे नंदनंदन उहै तुम्हारो पोत ॥ को यशुमति ऊखलसों बाँध्यो को दधि माखन चोरे । कै ए दोऊ रूख हमारे यमला अर्जुन तोरे ॥ कों लै वसन चढयो तरु शाखा मुरली मन औ करषै । कै रसरास रच्यो वृंदावन हरषि सुमन सुर वर ॥ ज्यों डाक्यों तव कत विन बूडे काहे को जीभ पिरांवतातव जु सूर प्रभु गए क्रूरलै अब क्यों
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सूरसागर।